Sunday, July 23, 2017

साहित्य और सिनेमा का ये कैसा रिश्ता!

- हेमंत पाल 

  सिनेमा और साहित्य का कुछ अलग सा रिश्ता है। दोनों साथ होते हुए भी साथ नहीं हैं। क्योंकि, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, पर कोई भी इस सच को मानता नहीं! यही कारण है कि साहित्यिक कृतियों पर फ़िल्में बनाने के कई प्रयोग हुए हैं, पर ज्यादातर सफल नहीं हुए! जितना किसी साहित्यिक कृति को पसंद किया गया, उस पर बनी फ़िल्में उतनी सफल नहीं रहीं। कुछ ही फ़िल्में याद रखने लायक बन सकीं हैं। मशहूर कथाकार काशीनाथ सिंह की मशहूर कृति 'काशी का अस्सी' पर चन्द्रप्रकाश द्विवेदी ने फिल्म 'मोहल्ला अस्सी' बनाई, पर इस फिल्म का क्या हश्र हुआ सब जानते हैं। संवादों को लेकर फिल्म विवादों में फंसी, ठीक से रिलीज भी नहीं हो सकी और अब तो इस फिल्म का जिक्र भी नहीं होता! प्रेमचन्द के उपन्यास 'गोदान' पर इसी नाम से बनी फिल्म, फणीश्वरनाथ रेणू की कहानी पर बनी 'तीसरी कसम', महाश्वेतादेवी की कहानी पर बनी 'रुदाली', विमल मित्र के उपन्यास पर बनी ‘साहब,बीवी और गुलाम’, टैगोर की कहानी ‘नष्टनीड़’ पर सत्यजीत राय की फिल्म ‘चारुलता’ जरूर ऐसी फ़िल्में थी, जो याद रखने योग्य है।
  वास्तव में इन दोनों विधाओं की अपनी-अपनी सीमाएँ हैं। साहित्य किसी दृश्य या घटना की जो व्याख्या या विश्लेषण करता है, हर पाठक के पास वही पहुँचता है। पाठकों के स्तर में अंतर के आधार पर उसका प्रभाव भी अलग-अलग होता है। जबकि, सिनेमा दृश्य माध्यम होता हैं। उसके पास व्याख्या और विश्लेषण की सुविधा बहुत कम होती है। साहित्य में जो व्याख्या उसके प्रभाव को बढ़ा देती है, उसी व्याख्या की कोशिश सिनेमा के असर को चौपट कर देती है। जो विवरण साहित्य की ताकत होता है, वही सिनेमा की कमज़ोरी बनकर सामने आता है। यही कारण है कि अधिकांश मशहूर साहित्यिक कृतियों फ़िल्मी प्रयोग असफल हुए हैं।
  आशय यह नहीं कि सिनेमा कि सम्प्रेषणीयता कम है। किन्तु, सिनेमा की भी अपनी कुछ ख़ास ताकत हैं, जो साहित्य के पास नहीं होती। फिल्मों में संगीत और दृश्य की ताकत सिनेमा को ऐसी क्षमता देती है जो उसे दूसरे और माध्यमों से अलग खड़ा करती है। ध्वनि और प्रकाश सिनेमा के कथानक की कई कमजोरियों ढांप देता है। जबकि, साहित्य के पास सिर्फ शब्दों की क्षमता होती है। लेखक को अपनी शब्द-क्षमता से ही कथानक को व्यक्त करना पड़ता है। यही कारण है कि कई बार अच्छे लेखक भी अपनी बात कहने में लड़खड़ा जाते हैं। सिनेमा के पास मौन की भाषा के इस्तेमाल की भी सुविधा होती है। लेकिन, मौन को व्यक्त करने के लिए साहित्य को बहुत से शब्द खर्चना पड़ते हैं। साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि पाठक पढ़ते हुए अपनी कल्पनाशक्ति से दृश्यचित्र बनाता है। जबकि, सिनेमा में दर्शक को डायरेक्टर की कल्पनाशक्ति देखता  पड़ती है। ऐसे में सिनेमा के दर्शक की अपनी कल्पनाशक्ति लुप्त हो जाती है। जरूरी नहीं कि डायरेक्टर की कल्पनाशक्ति और दर्शक की सोच की दिशा एक ही हो! इसलिए अधिकाँश साहित्य पर बनी फिल्म सफल नहीं हो पाती।
  साहित्य के पास सिनेमा के लिए अथाह भंडार है। उसके पास मनोभाव, दशा-दिशा, पात्रों, दृश्यों, वास्तुकला, परिवेश और भावनात्मक स्थितियों के दृश्यात्मक ब्यौरा होता हैं। शब्दों और संगीत के प्रभावों तक के विवरण साहित्य के पास मौज़ूद हैं। साहित्य ने तो सिनेमा को सहारा देने के लिए कई बार कथानक के रूप में खुद को बदला भी है। जब भी ज़रूरत हुई साहित्य ने खुले मन से सिनेमा का सहयोग किया। अब तो चेतन भगत जैसे लेखक पैदा हो गए जो सिनेमा के ही लेखक बन गए। चेतन अंग्रेजी के ऐसे लेखक हैं, जो अपना लेखन सिनेमा को जहन में रखकर करते हैं। उनकी कृतियों पर बनी फिल्मों को मिली सफलता ने उन्हें जहाँ खड़ा किया है, ये कहना मुश्किल है कि वे लेखक हैं या फ़िल्मी पटकथा के रचनाकार! अभी तक उनके 5 कृतियों पर फ़िल्में बन चुकी है। लेकिन, सभी सफल नहीं रही। दरअसल, साहित्य और सिनेमा का रिश्ता दो ऐसे पड़ोसियों जैसा रहा है, जो मोके-बेमौके ही मेलजोल रखते हैं। दोनो एक-दूसरे के काम भी आते हैं, लेकिन दोनों के बीच प्रेम है या नहीं, ये सुनिश्चित नहीं!
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