- हेमंत पाल
पहलाज निहलानी के अध्यक्ष बनने के बाद से इस तरह के विवाद कुछ ज्यादा ही उभरने लगे हैं। क्योंकि, उनके रवैये को मनमानी और तानाशाही से भरा माना जा रहा है। जबकि, निहलानी खुद भी जाने-माने फ़िल्मकार रहे हैं। उन्होंने ज्यादातर फार्मूला फ़िल्में ही बनाई है। उनकी फिल्मों में भी वो सब होता था, जिसे लेकर उन्हें आज आपत्ति है। उनको कभी गंभीर फिल्मकारों की गिनती में नहीं लिया जाता! लम्बे अरसे बाद मुमताज को 'आँधियां' से वे दोबारा परदे पर लाए थे। उस वक़्त मैंने भी उनके नजरिए को काफी करीब से देखा और समझा था। तब वे सिर्फ निर्देशक थे और उनका नजरिया भी दर्शकों के लिए फिल्म बनाने तक सीमित था। तब कहीं से नहीं लगा था कि उनके अंदर कोई ऐसा अड़ियल इंसान छुपा है, जो सिर्फ आदेशात्मक भाषा में बात करता हो! अपने नए रूप में वे सरकार के एजेंडे को लेकर जिस तरह गंभीरता बरतते रहे हैं, फिल्म इंडस्ट्रीज में उनके खिलाफ मोर्चा खुलता जा रहा है।
सरकार के प्रति उनकी आसक्ति और भक्तिभाव ने भी उनके सम्मान को घटाया है। एक फिल्म के संवाद से ‘मन की बात' शब्द को निकालने के लिए भी दबाव डाला गया। क्योंकि, ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नियमित रेडियो कार्यक्रम का नाम है? पाकिस्तानी कलाकारों को भारतीय फिल्मों में काम न करने देने के उनके बयान को भी अनुचित माना गया था। ये आरोप भी लगे हैं कि सेंसर बोर्ड का एजेंडा पूरी तरह भगवा हो चुका है। अमर्त्य सेन पर बनी एक डॉक्यूमेंट्री से गाय, हिंदुत्व, हिंदू और इंडिया जैसे शब्द हटाने के लिए दबाव डाला गया और उन्हें हटवा भी दिया। एक बांग्ला फिल्म के गाने ‘देख केमोन लागे’ में 'राधा' शब्द पर आपत्ति उठाई गई। जबकि, ये गाना एक लोकप्रिय लोकगीत पर आधारित था। इससे पहले अनिक दत्ता की फिल्म 'मेघनाद वध रहस्य' में 'रामराज्य' शब्द को सेंसर ने अनुचित माना था। लाख समझाने पर भी सेंसर बोर्ड नहीं माना और 'रामराज्य' शब्द हटाना ही पड़ा।
बोर्ड के अध्यक्ष बनने के बाद निहलानी ने फिल्मों में 32 शब्दों के उपयोग पर ही आपत्ति उठाई थी। भारी विरोध के बाद इसमें से 16 शब्द हटाए गए। आज जबकि इंटरनेट की असीमित पहुँच के कारण सूचनाओं, विचारों, दृश्यों के साथ-साथ हर तरह की कला का निर्बाध संचार हो रहा है, सेंसर बोर्ड की उपयोगिता का कोई महत्व नहीं रह जाता। किसी फिल्मकार के रचे दृश्यों, संवादों और गीतों में काट-छांट करना उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने जैसा है। सेंसर बोर्ड का काम फिल्म के मुताबिक दर्शक वर्ग का आयु-समूह निर्धारित करना है, न कि अपने विचारों से फिल्म को दर्शकों के अनुरूप बनाना। लेकिन, अभी सेंसर बोर्ड यही कर रहा है!
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इन दिनों फिल्मों से ज्यादा सेंसर बोर्ड कुछ ज्यादा ही चर्चा में रहने लगा है। जब भी कोई फिल्म बनकर सेंसर के सामने जाती है निर्माता, निर्देशक की धड़कनें बढ़ जाती है। क्योंकि, सेंसर किस सीन, संवाद और शब्द पर उंगली उठा दे कहा नहीं जा सकता! आपातकाल में तो सेंसर की सख्ती फिल्मकार देख चुके हैं। लेकिन, ताजा हालात में जिस तरह की सख्ती नजर आ रही है, वो समझ है। इंदू सरकार, जब हैरी मीट सेजल, लिपस्टिक अंडर माय बुर्का और अमर्त्य सेन पर बनी डाक्यूमेंट्री पर सेंसर का जो रुख रहा, वो दर्शकों को भी रास नहीं आ रहा! पंजाब की ड्रग समस्या पर बनी फिल्म 'उड़ता पंजाब' को लेकर सेंसर ने जो सख्ती दिखाई थी, उसे लेकर भी काफी विवाद हुआ! सवाल उठता है कि क्या आज के समाज में सेंसर का इतना दखल स्वीकार्य है?
जब से पहलाज निहलानी सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष बने, सेंसर की कैंची की धार कुछ ज्यादा ही तेज हो गई! ये भी देखा गया है कि हर फिल्म को लेकर बोर्ड नजरिया बदल जाता है। अब तो ये सवाल भी पूछा जाने लगा है कि क्या वाकई फिल्मों के लिए सेंसर बोर्ड की जरूरत बची है? जिस 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' फिल्म को मुंबई फिल्म महोत्सव में लिंग समानता के लिए 'ऑक्सफैम पुरस्कार' और टोक्यो अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में 'स्पिरिट ऑफ एशिया' पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका हो, उसे सेंसर पास करने से इसलिए इंकार कर दे, कि यह फिल्म ‘महिला-केन्द्रित' है! जब ऐसा कुछ होता है तो शक की सुई वहीं ठहरती है जहाँ उम्मीद की जाती है।पहलाज निहलानी के अध्यक्ष बनने के बाद से इस तरह के विवाद कुछ ज्यादा ही उभरने लगे हैं। क्योंकि, उनके रवैये को मनमानी और तानाशाही से भरा माना जा रहा है। जबकि, निहलानी खुद भी जाने-माने फ़िल्मकार रहे हैं। उन्होंने ज्यादातर फार्मूला फ़िल्में ही बनाई है। उनकी फिल्मों में भी वो सब होता था, जिसे लेकर उन्हें आज आपत्ति है। उनको कभी गंभीर फिल्मकारों की गिनती में नहीं लिया जाता! लम्बे अरसे बाद मुमताज को 'आँधियां' से वे दोबारा परदे पर लाए थे। उस वक़्त मैंने भी उनके नजरिए को काफी करीब से देखा और समझा था। तब वे सिर्फ निर्देशक थे और उनका नजरिया भी दर्शकों के लिए फिल्म बनाने तक सीमित था। तब कहीं से नहीं लगा था कि उनके अंदर कोई ऐसा अड़ियल इंसान छुपा है, जो सिर्फ आदेशात्मक भाषा में बात करता हो! अपने नए रूप में वे सरकार के एजेंडे को लेकर जिस तरह गंभीरता बरतते रहे हैं, फिल्म इंडस्ट्रीज में उनके खिलाफ मोर्चा खुलता जा रहा है।
सरकार के प्रति उनकी आसक्ति और भक्तिभाव ने भी उनके सम्मान को घटाया है। एक फिल्म के संवाद से ‘मन की बात' शब्द को निकालने के लिए भी दबाव डाला गया। क्योंकि, ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नियमित रेडियो कार्यक्रम का नाम है? पाकिस्तानी कलाकारों को भारतीय फिल्मों में काम न करने देने के उनके बयान को भी अनुचित माना गया था। ये आरोप भी लगे हैं कि सेंसर बोर्ड का एजेंडा पूरी तरह भगवा हो चुका है। अमर्त्य सेन पर बनी एक डॉक्यूमेंट्री से गाय, हिंदुत्व, हिंदू और इंडिया जैसे शब्द हटाने के लिए दबाव डाला गया और उन्हें हटवा भी दिया। एक बांग्ला फिल्म के गाने ‘देख केमोन लागे’ में 'राधा' शब्द पर आपत्ति उठाई गई। जबकि, ये गाना एक लोकप्रिय लोकगीत पर आधारित था। इससे पहले अनिक दत्ता की फिल्म 'मेघनाद वध रहस्य' में 'रामराज्य' शब्द को सेंसर ने अनुचित माना था। लाख समझाने पर भी सेंसर बोर्ड नहीं माना और 'रामराज्य' शब्द हटाना ही पड़ा।
बोर्ड के अध्यक्ष बनने के बाद निहलानी ने फिल्मों में 32 शब्दों के उपयोग पर ही आपत्ति उठाई थी। भारी विरोध के बाद इसमें से 16 शब्द हटाए गए। आज जबकि इंटरनेट की असीमित पहुँच के कारण सूचनाओं, विचारों, दृश्यों के साथ-साथ हर तरह की कला का निर्बाध संचार हो रहा है, सेंसर बोर्ड की उपयोगिता का कोई महत्व नहीं रह जाता। किसी फिल्मकार के रचे दृश्यों, संवादों और गीतों में काट-छांट करना उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने जैसा है। सेंसर बोर्ड का काम फिल्म के मुताबिक दर्शक वर्ग का आयु-समूह निर्धारित करना है, न कि अपने विचारों से फिल्म को दर्शकों के अनुरूप बनाना। लेकिन, अभी सेंसर बोर्ड यही कर रहा है!
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