- हेमंत पाल
मध्यप्रदेश सरकार लगातार दूसरे साल भी प्याज में चोट खा गई। पिछले साल भी 6 रुपए किलो पर किसानों से प्याज खरीदकर आधा पौना बेचा और बाकी सड़ाकर फेंक दिया। इस साल भी वही कहानी दोहराई गई। इस बार 8 रुपए किलो खरीदा गया और 2 रुपए किलो बेचने की कोशिश की गई। दो-तिहाई प्याज ख़राब हो गया। विधानसभा में सरकार ने अनुपूरक बजट में मान भी लिया कि उसे 580 करोड़ का नुकसान हुआ है। सरकार से प्याज खरीदी का ब्याज तक नहीं निकल सका, वो भी किसी और की जेब में गया! इसके बाद भी सरकार मानने को तैयार नहीं कि उसके इस फैसले में कहीं खोट थी। सभी जानते हैं कि ये फैसला किसानों के हित में कम राजनीतिक ज्यादा था। क्योंकि, किसानों के गुस्से को ठंडा करने के लिए सरकार ने एक बार फिर वही गलती दोहराई, जो पिछले साल वह कर चुकी थी। प्याज पॉलिटिक्स का एक पहलू ये भी है इसमें कई अफसरों ने अपने हिस्से की चाँदी काटने का कोई मौका भी नहीं छोड़ा। लेकिन, ये सवाल अनुत्तरित ही रह गया कि प्रदेश में जितनी भूमि पर प्याज नहीं उपजता, उससे ज्यादा प्याज सरकार ने खरीद कैसे लिया?
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मध्यप्रदेश में इन दिनों किसानों को बहलाने, पुचकारने और उन्हें अपने पक्ष में करने का दौर चल रहा है। मंदसौर कांड के बाद जिस तरह का घटनाक्रम हुआ, उससे सरकार को बेक फुट पर आने को मजबूर होना पड़ा था। कुछ हद तक कांग्रेस ने मैदान मारने कोशिश जरूर की थी। लेकिन, सरकार के लिए मुश्किल वाली बात थी कि सारी स्थितियाँ सरकार के विपरीत जा रही थीं। यही सब मैनेज करने के लिए मुख्यमंत्री ने किसानों से 8 रुपए किलो प्याज खरीदने का फैसला किया। लेकिन, इसी फैसले के कारण सरकार को प्याज के आँसू रोने को मजबूर होना पड़ा। पहले तो प्याज की फसल बंपर हुई। फिर किसानों ने उचित कीमत न मिलने को लेकर विरोध किया और सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया। सरकार इतनी दबाव में आ गई कि आनन-फानन में किसानों से बाजार भाव से ऊंची कीमत पर प्याज खरीदने का फैसला कर लिया। लेकिन, यही प्याज मुसीबत बन गया और सरकार अपने फैसले को सही बताने पर आमादा है। सरकार के पास प्याज रखने के लिए जगह तक नहीं है! अब ये सरकारी प्याज बारिश में भीगकर सड़ रहा है। इस मुसीबत से निकलने के लिए सरकार ने दूसरे राज्यों को सस्ते में प्याज बेच दिया।
अपने फैसले को लेकर कहा गया कि ये किसान हितेषी फैसला है और जरुरत पड़ी तो आगे भी ऐसे फैसले किए जाएंगे। अपने फैसलों को लेकर सरकार का ऐसा जवाब स्पष्तः हठधर्मी ही कहा जाएगा। सरकार कुछ भी करने के लिए हमेशा स्वतंत्र होती है। उसके फैसलों पर कोई उंगली नहीं उठा सकता! लेकिन, जनता के 580 करोड़ रुपए बर्बाद करने लेकर सरकार यदि संतोषजनक जवाब देती तो बेहतर होता! किसानों के साथ वो उस जनता की भी सरकार है जो किसान नहीं हैं! वो उनके प्रति भी उतनी ही जवाबदेह है जितना किसानों प्रति! सिर्फ किसानों को संतुष्ट करने के लिए सरकार ने बाकी लोगों की नाराजी जरूर मोल ले ली!
प्याज को लेकर सरकार ने लीपापोती वाले जो जवाब दिए हैं, वो लोगों के गले नहीं उतर रहे! प्याज की खरीदी में धांधली और उसके सड़ने के मामले में सरकार चारों तरफ से मुश्किलों में घिरी दिखाई दे रही है। लेकिन, सरकार बजाए पूरे प्रदेश के लोगों को अपने फैसले में साझेदार बनाने के हठधर्मी करती ज्यादा लगती है। किसानों के प्रति सभी की संवेदना है, ऐसे में किसानों के हित में प्याज खरीदी के फैसले को जनता और सरकार का फैसला कहा जाता अच्छा होता! लेकिन, यहाँ भी सरकार का गुरुर ही ज्यादा दिखाई दिया कि उसने जो किया ठीक किया है। इससे एक कदम आगे बढ़कर विधानसभा में ये तक कहा गया कि इस बार हमनें प्याज की खरीदी, वितरण और परिवहन की सुचारु व्यवस्था की! इसलिए सिर्फ 5 फीसदी प्याज ही खराब हुई है। जबकि, प्याज के बड़े व्यापारियों का कहना है कि प्याज को कितना भी बचाओ 30% प्याज तो ख़राब होती ही है। फिर सरकार के सिर्फ 5% ख़राब होने का आधार क्या है, ये स्पष्ट नहीं हुआ! जबकि, प्रदेशभर की मंडियों, गोदामों और सरकारी स्कूलों में प्याज के सड़ने की बदबू फैली हैं।
समर्थन मूल्य पर खरीदी गई प्याज प्रदेश की मंडियों में इतनी ज्यादा मात्रा में पहुंच गई कि मंडियों के चारों तरफ प्याज ही प्याज नजर आती रही। बंपर आवक से हालात इतने बेकाबू हो गए कि हर मंडी में प्याज सड़ रही है। प्याज रखने तक के लिए जगह नहीं है। इस सबसे मंडी से जुड़े अधिकारी तो परेशान है ही, मंडी में अनाज लेकर आने वाले किसान भी परेशान रहे। समर्थन मूल्य पर खरीदी गई ये प्याज व्यापारियों को औने-पौने दाम पर बेचे जाने की घटनाएं भी आम रही। मंडी वालों ने खड़े ट्रकों की दो रूपए से ढाई रूपए किलो तक में नीलामी कर दी! ये प्याज दिल्ली, महाराष्ट्र और हैदराबाद तक ले जाई गई! सबसे ज्यादा परेशानी बारिश के कारण भी हुई। बंद गोदाम में प्याज रखने से भी वो ख़राब हो जाती है और उसे जल्दी बाहर निकालना पड़ता है। जो प्याज खुले में रखी थी, वो बारिश से भीग गई और सड़ने की कगार पर आ गई।
प्याज की इतनी बम्पर आवक ने भी शंका के बीज बो दिए। क्योंकि, प्रदेश में जितने रकबे में प्याज की पैदावार होती है, मंडियों में पहुंचा प्याज उससे कहीं ज्यादा था! कृषि वैज्ञानिकों के अनुमान के मुताबिक प्रदेश में कृषि योग्य भूमि की अधिकतम क्षमता 50 लाख मीट्रिक टन अनाज उत्पादन की है। तो ये उत्पादन 84 लाख टन कैसे हो गया? ऐसे में 34 लाख टन कहां से आया? प्याज की बंपर फसल पर बहस छिड़ने का कारण भी यही था। क्योंकि, न तो इतनी अधिक बीज की बिक्री हुई और न इतना रकबा दर्शाया गया था। कृषि विभाग का अमला भी इस सबसे बेखबर रहा। कृषि मंत्री किसानों को उद्यानिकी फसल उगाने की बात कहते रहे। लेकिन, जब बम्पर फसल सामने आई तो किसान बिक्री को तरस गए। आशंका ये भी रही कि कहीं आसपास के राज्यों के किसान तो अपनी प्याज प्रदेश में नहीं बेच गए?
प्याज की खरीदी के बाद इसकी नीलामी की प्रक्रिया भी प्याज के छिलकों की तरह ही रही। देखा जाए तो ये नीलामी घोटालों की परतों में फंसी हुई है। प्याज से भरी पूरी रेल व्यापारियों को बहुत कम कीमत पर बेचने तक की ख़बरें सामने आई। इसके अलावा और भी कई मामले हैं जो प्याज की नीलामी को कटघरे में खड़ा करते हैं। इसे सरकार कैसे छुपाएगी? इस सबसे लगता है कि सरकार ने अभी तक सार्वजनिक आपूर्ति प्रणाली के अतीत से कोई सबक नहीं सीखा! नीलामी में उच्चतम बोली वाले व्यापारियों को ही प्याज देना थी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। इस पूरी प्रक्रिया की देखभाल करने वाले नौकरशाहों ने चंद व्यापारियों से सांठगांठ करके प्याज उनको देने में रूचि दिखाई! अधिकारियों ने इसी काम की कीमत ली कि वे नीलामी को इस ढंग से मैनेज करेंगे कि बोली यह 2.10 या 2.20 रुपए प्रति किलो से ऊपर न जा सके! कई बड़े व्यापारी जो प्याज से भरी रेलगाड़ी के लिए बोली लगाने को तैयार थे, उन्हें यह कहा गया कि पूरी ट्रेन के लिए बोली लगाने की अनुमति ही नहीं है। इस पूरे मामले में विपक्ष की मजबूरी है कि वो सरकार का विरोध भी नहीं कर सकती! क्योंकि, तब किसान उससे नाराज जाएंगे, फिर उन्हें मनाने का फार्मूला भी विपक्ष के पास नहीं है।
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