- हेमंत पाल
मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव को अभी सवा साल से ज्यादा वक़्त बचा है। कांग्रेस की तो नींद नहीं टूटी, पर भाजपा ने कमर कसकर तैयारी कर ली! कांग्रेस ने तो अभी तक तय नहीं किया कि उसके चुनावी रथ का सारथी कौन होगा, पर भाजपा ने अपनी चुनावी सेना के लिए जवानों का चुनना शुरू कर दिया। पुराने जवानों में कौन बचेगा और कौन हटेगा, इसकी रणनीति बन गई! पार्टी की गंभीरता इसी बात से नजर आती है कि उसने सभी 165 विधायकों को निशाने पर लिया है। उधर, आरएसएस और सरकार ने भी अपने विधायकों के कामकाज, जनता में छवि और अगला चुनाव जीतने की संभावनाओं की रिपोर्ट बनवा ली। इसके अलावा इंटेलीजेंस भी विधायकों की अपने स्तर पर छानबीन कर रहा है। ऐसे में सबसे बड़ा खतरा ये है कि जिसे हटाया जाएगा वो पार्टी का कितना नुकसान करेगा! इसे कांग्रेस की चुनावी कछुवा चाल के सामने भाजपा का लांग जम्प ही माना जाएगा। उधर, मुकाबले में उतरने वाली कांग्रेस अभी उहापोह में ही है कि क्या किया जाए? पिछले चुनाव में उसके खाते में कुल जमा 58 विधायक आए थे, उसमें भी 2 कम हो गए। विधानसभा में ये संख्या कैसे बढ़ेगी, ये रणनीति बनाने वाले ही अभी तय नहीं हो पाए हैं।
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वर्तमान विधानसभा की 230 सीटों में से भाजपा के 165 विधायक हैं। जबकि, कांग्रेस के 56, बसपा के 4 सदस्य हैं और 3 निर्दलीय हैं। विधानसभा में अभी 2 सीटें खाली हैं। भारतीय जनता पार्टी के जानकारों के मुताबिक गोपनीय रिपोर्ट में 66 सीटों पर पार्टी को नुकसान होने का खतरा है। क्योंकि, यहाँ जनाधार घटने के संकेत हैं। 66 में से 8 सीटें ऐसी हैं जहाँ से चुने गए विधायक मंत्री पद पर हैं। लेकिन, पार्टी की नजर में ऐसी 100 सीटें हैं, जहाँ उम्मीदवारों को बदले जाने का फैसला किया जा सकता है। ये विचार इसलिए बनता दिखाई दे रहा है कि जनता एक ही नेता से ऊब भी जाती है। इसलिए बेहतर हो कि उसमें समय रहते बदलाव किया जाए! दिल्ली महानगर निगम के चुनाव में भाजपा ने अपने सभी उम्मीदवार बदलकर जो प्रयोग किया था, वो बहुत सफल रहा था। अब पार्टी यही प्रयोग विधानसभा चुनाव में करने जा रही है। ज्यादा से ज्यादा नए चेहरों पर दांव लगाने का विचार बन रहा है।
इस बार प्रदेश की सत्ता पर काबिज भाजपा विधानसभा चुनाव को लेकर ज्यादा ही गंभीर है। पार्टी नहीं चाहती कि उसकी जरा सी गलती चौथी बार सरकार बनाने की राह में अड़चन बने! यही कारण है कि विधानसभा में बहुमत पाने के लिए सारे फॉर्मूले आजमाए जा रहे हैं। सबसे बड़ी फांस है, ऐसे विधायकों से मुक्ति पाना जिनके जीतने के आसार कम हैं। क्योंकि, ऐसे विधायकों को टिकट न देने से उनके विद्रोह का भी खतरा है। भाजपा विधायकों ने अपने कार्यकाल के दौरान जनता से कैसे रिश्ते बनाए, ये सच ही उनका अगला चुनाव लड़ने का आधार बनेगा! विधायकों का कामकाज, जनता से उनकी नजदीकी, क्षेत्र के सामाजिक संगठनों की उनके बारे में राय और पार्टी कार्यकताओं के विचार भी विधायकों के पक्ष में माहौल बनाएंगे! सीधी सी बात ये कि अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा के टिकट पर वही चुनाव लड़ेगा, जिसके जीतने की संभावना सौ फीसदी होगी! सरकार और पार्टी दोनों ही इस बार कोई रिस्क लेने के मूड में नहीं है। क्योंकि, इस बार उसके सामने एंटी-इनकम्बेंसी का खतरा भी मंडरा रहा है। पार्टी ने अभी करीब 60 से ज्यादा सीटें ऐसी खोजी है जहाँ भाजपा की हालत बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती।
पिछले 6 महीनों में भाजपा ने अपने विधायकों को लेकर जो खोजबीन करवाई है, उसके नतीजे संतोषजनक नहीं आए! इसलिए पार्टी चिंता में है। ऐसी कई सीटें हैं, जहाँ कि जनता अपने विधायकों के समर्थन में दिखाई नहीं दे रही। चुनाव जीतने के बाद तो कुछ विधायकों ने अपनी जनप्रतिनिधि वाली इमेज ही खो दी! जनता के बीच उनकी छवि ऐसे नेता कि बन गई, जिनके पास मिलने का समय नहीं है। भाजपा के गोपनीय सर्वे ने ऐसे कई विधायकों के सामने खतरा खड़ा कर दिया है। वर्तमान कार्यकाल के साढ़े तीन साल निश्चिंतता से गुजारने के बाद ये विधायक समझ नहीं पा रहे हैं कि बचे वक़्त में कैसे खुद को टिकट पाने के लायक साबित करें?
भाजपा के कुछ नेताओं की बातों पर भरोसा किया जाए, तो पार्टी अगले साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव में उन्हीं नेताओं पर दांव लगाएगी, जो उसके चुनाव चिन्ह पर जीत सकेगा! इस बार पार्टी ने विधायकों के क्षेत्र में उनकी छवि जांचने के अलावा विधानसभा में भी उनके प्रदर्शन को परखा है। सदन में उनकी उपस्थिति, क्षेत्र को लेकर उठाए जाने वाले सवाल और इस सबसे जनता में बनने वाली उनकी छवि को भी आँका गया। जिन क्षेत्रों में उपचुनाव हुए हैं, वहां इन विधायकों की भूमिका कैसी रही, इस पर भी ध्यान दिया गया है। ये वो मानक हैं, जो अगले चुनाव में किसी विधायक को फिर से टिकट दिलाने या उससे छीने जाने का आधार बनेंगे।
पार्टी और सरकार द्वारा करवाए गए इन सर्वे से जो निष्कर्ष निकला है उसने पार्टी को चिंतित तो कर दिया, पर वक़्त रहते संभलने का मौका भी दिया है। क्योंकि, अभी विधानसभा चुनाव में इतना समय है कि हालात को संभाला जा सकता है। अब पार्टी हर सीट पर तीन संभावित उम्मीदवारों का पैनल बनाकर सही उम्मीदवार चुनेगी! ऐसे में कहा नहीं जा सकता कि कौन बचेगा और कौन कटेगा! अबकि बार पार्टी उम्मीदवार की उम्र को भी टिकट का आधार बनाने के मूड में है। यदि 70 साल की उम्र होने पर दो मंत्रियों की छुट्टी हो सकती है, तो इसी उम्र का कोई नेता विधानसभा का चुनाव कैसे लड़ सकता है!
उधर, कांग्रेस ने अभी तक पार्टी स्तर पर चुनाव के लिए कोई रणनीति बनाई होगी, ऐसे आसार कहीं नजर नहीं आ रहे! क्योंकि, रणनीति तो तब बनेगी, जब प्रदेश की कमान संभालने वाला तय होगा! अभी सारी कवायद इसी बात पर टिकी है कि कमान कौन संभाले? इसलिए कि पार्टी तीन महारथियों के बीच ऐसी उलझी हुई है कि कोई भी समीकरण सटीक नहीं बैठ रहा! ऐसे में कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व को संतुलन बनाए रखने की जद्दोजहद करना पड़ रही है। इस बीच चुनाव की रणनीति बनाने के लिए प्रशांत किशोर का नाम भी उछला है। ये भी सामने आया है कि प्रदेश में प्रशांत किशोर ने अपनी टीम जरिए सभी 230 सीटों के पर प्राथमिक सर्वे करके अपनी एक रिपोर्ट पार्टी को सौंप भी दी! इसमें नेताओं की लोकप्रियता के क्षेत्रवार और बूथवार आंकड़े हैं।
पार्टी के रणनीतिकारों के मुताबिक प्रशांत किशोर ने अपने प्राथमिक सर्वे के नतीजे को गोपनीय रखते हुए पार्टी को स्पष्ट कर दिया था कि प्रदेश में सत्ता पाने के लिए सभी नेताओं गुटबाजी छोड़ना होगी! प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी जैसे नेताओं को गुट छोड़कर कांग्रेस के लिए गंभीर होना पड़ेगा, तभी कुछ हो सकता है। लेकिन, जब तक पार्टी के नेता खुद सामने आकर प्रतिद्वंदी पार्टी से मुकाबले में नहीं उतरेंगे, प्रशांत किशोर भी कुछ नहीं कर सकता! वैसे भी पार्टी का ये प्रयोग उत्तरप्रदेश में बुरी तरह फेल हो चुका है।
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