Sunday, December 27, 2020

कोरोना से उपजा सिनेमाघरों का नया अवतार

हेमंत पाल

   कोरोना को आए और अपना पैर जमाए लम्बा अरसा हो चुका है। इस दौरान न केवल इंसानी जीवन बदला, बल्कि जीने का अंदाज भी बदल गया। जीने के इसी अंदाज में सिनेमा भी शामिल है। कोरोना के प्रादुर्भाव काल में एक दौर ऐसा भी आया, जब प्रोजेक्टर से निकलने वाली प्रकाश रश्मियां ठहर गई! सीटों और सिनेमा हालों में सन्नाटा पसरा रहा। यहां तक कि कैंटीन में उडने वाली स्नैक्स की खुशबू भी गायब हो गई थी। लेकिन, जीवन कोई ठहरा हुआ पानी नहीं जो ठहरकर सडांध मारने लगे। धीरे-धीरे लोगों ने कोरोना के साथ जीना सीख लिया और अब कोरोना प्रतिरोधी नई जीवनशैली रची जा रही है। मनोरंजन भी इस दौड में पीछे नहीं रहा! 
    सिनेमा ने पहले ओटीटी प्लेटफार्म का सहारा लेकर फिल्मों का प्रदर्शन किया। इसे खूब देखा और सराहा गया। जब मनचाहे समय और मनचाही जगह पर आपके सितारे आपके ड्राइंग रूम में उतर आएं तो कौन उनका स्वागत करना नहीं चाहेगा! इस बहाने मनोरंजन के सौदागरों को अपना माल बेचने का नया प्लेटफार्म भी मिल गया! लेकिन, इसे उन्होंने बजाए वरदान समझने के माल कमाने का प्लेटफार्म मान लिया और वह सब परोसने लगे जिसे दर्शकों ने पूरी तरह से नकार दिया। कोरोनाकाल के बाद ओटीटी प्लेटफार्म पर जितनी भी फिल्में प्रदर्शित हुई, इक्का-दुक्का को छोड़कर सभी बकवास निकली। ओटीटी के अलावा सैटेलाइट से सीधे फिल्म प्रसारण का भी दौर कोरोनाकाल के बाद से शुरू हुआ! इसे देश के महानगरों की बडी टाउनशिप और क्लब हाउसों में अपनाया जाकर रहवासियों और सदस्यों को सभी तरह की देसी विदेशी फिल्में दिखाई जाने लगी। कुछ सैटलाइट चैनलों ने भी ऑन पेमेंट फिल्मों का प्रदर्शन शुरू कर मनोरंजन को एक नई दिशा दी है।
   कोरोनाकाल के घटने के बाद थिएटर को पचास प्रतिशत क्षमता से फिल्में दिखाने की जो शुरूआत हुई थी, वह प्रदर्शकों के लिए दोहरे घाटे का सौदा साबित हुई। इसका एक कारण यह भी है कि मल्टीप्लेक्स में दर्शकों की संख्या भले ही आधी रखी जाए , लेकिन स्टॉफ और एक्जिबिशन कास्ट तो लगभग वही है। हर शो के बाद सेनेटाइजेशन और लम्बे अंतराल से जहां शो की संख्या घटी है, वही इस काम के लिए अतिरिक्त स्टॉफ रखा जाना जरूरी है। इतना तामझाम इकट्ठा करके जब मल्टीप्लेक्स में फ़िल्मो का प्रदर्शन आरंभ हुआ, तो इक्का-दुक्का दर्शकों ने ही मल्टीप्लेक्स जाकर फिल्में देखना पसंद किया। लिहाजा बढ़ते घाटे के बजाए अधिकांश प्रदर्शकों ने सिनेमाघरों मे ताले लटकाने में ही फायदा महसूस किया।
   इस तरह की स्थिति से निपटने के लिए इंदौर समेत कई शहरों में बडे पैमाने पर ड्राइव-इन-मूवी थियेटर के निर्माण की योजना पर तेजी से अमल हो रहा है। वास्तव में देखा जाए तो यह कोई नया प्रयोग नहीं है, फिर भी कोरोनाकाल और सोशल डिस्टेंसिंग को देखते हुए इसे बेहतर प्रयास माना जाएगा। ड्राइव-इन-मूवी थियेटर्स एक अनूठा प्रयोग है, जो लोग बडे पर्दे पर फिल्में देखना चाहते हैं! उनके लिए ये प्रयोग काफी कारगर साबित हो सकता है, बशर्तें आपके पास एक गाड़ी होनी चाहिए।
     पिछले दिनों कोरोना मुक्त देश न्यूजीलैंड में सिनेमाघर फिर से आबाद होने लगे है। अमेरिका जहां अब भी कोरोना वायरस शबाब पर है, वहां पर सिनेमाघरों में एक अनूठा प्रयोग अपना रहे हैं। वहां अब भी सोशल डिस्टेंसिंग और साफ-सफाई का खास ख्याल रखा जा रहा है। अमेरिका में कई थियेटर चेन इस प्रयोग को लेकर काफी उत्साहित हैं। ड्राइव-इन-मूवी थियेटर्स में लोग अपनी गाड़ियां में स्पीकर लगा लेते हैं और सामने लगी विशाल स्क्रीन पर फिल्म का लुत्फ ले सकते हैं। मुंबई में कभी इस तरह का सिनेमाघर खूब चला था। अभी अहमदाबाद में भी ये चलाया जा रहा है। ड्राइव-इन-थिएटर का प्रयोग उन्हें रास आ सकता है, जो सपरिवार फिल्में देखना पसंद करते हैं। चूंकि, लोगों को अपनी गाड़ी से बाहर निकलना ही नहीं है और दूसरे लोगों के संपर्क में भी नहीं आना है, ऐसे में कोरोना वायरस के खतरे को कम किया जा सकता है और कोरोना वायरस प्रोटोकॉल फॉलो कर आराम से बड़ी स्क्रीन पर फिल्म का आनंद लिया जा सकता है। सोशल डिस्टेंसिंग को ध्यान में रखते हुए ड्राइव-इन थियेटर्स के कुछ नियम भी हैं, जिनका पालन करना जरूरी है। जैसे कि इनके टिकटों की बिक्री केवल ऑनलाइन ही की जाए। सिनेमाघर में कोई टिकट घर न हों, ताकि वहां लाइन न लग सके। 
   गाड़ी से बाहर निकलने की परिस्थिति में मास्क लगाकर निकलना ही जरूरी होगा। कारों की पार्किंग में भी सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए उन्हें सुरक्षित दूरी पर खड़ी करवाया जाना चाहिए। ऐसी ही सावधानी खान-पान को लेकर बरतना आवश्यक है। दर्शक या तो अपना खुद का खाना साथ लेकर आएं या सुरक्षित तरीके से उपलब्ध सामग्री का उपयोग करें। इसके अलावा इन स्थानों पर बने प्रसाधन घरों का नियमित सेनेटाइजेशन भी जरूरी है। इस समय अमेरिका के न्यूयार्क, कैलिफोर्निया, फ्लोरिडा, मैरी लैंड और न्यूजीलैण्ड के ऑकलैंड, वैलिंगटन, क्रिसचर्च और हेमिल्टन के दर्शक कोरोना को भूलाकर ड्राइव सिनेमा का लुत्फ उठा रहे हैं। खुदा न खास्ता कोरोना का यह दौर यदि लम्बा चला, तो हमारे देश में भी दर्शक कार में बैठकर बडे पर्दे पर सिनेमा का लुत्फ उठाने में कोताही नहीं बरतेंगे। 
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Saturday, December 19, 2020

दिल जीतने वाले कुछ खुरदुरे किरदार!

हेमंत पाल

   सिनेमा की दुनिया में बीते सालों में जो बदलाव आया उसने कई धारणाओं को खंडित किया है। सबसे बड़ा बदलाव आया है खलनायक की भूमिका को लेकर, जो किसी भी फिल्म का अहम् हिस्सा होते हैं! फिल्मों का जो खलपात्र अपनी जिस क्रूरता और शातिराना अंदाज के लिए पहचाना जाता था, वो पात्र फिल्मों से लगभग गायब हो गया! किसी फिल्म में खलनायक होता भी है, तो उसके चेहरे पर न तो क्रूरता के भाव होते हैं और न आँखों में वो अंदाज जो उसके खलनायक होने की पहचान होता है। बीते एक दशक में फिल्मों में ये बदलाव तेजी से दिखाई दिया। अब न तो मोगेम्बो का वजूद बचा, न बेडमैन का और न डॉ डेंग जैसा चेहरा ही परदे पर नजर आया। अब नायक और खलनायक में बहुत ज्यादा फर्क नहीं रहा! खलनायक वास्तव में 'ग्रे-कैरेक्टर' में बदल गया। ये बदलाव अब कई फिल्मों में दिखाई देने लगा! पर, ऐसे प्रयोग पहले भी हुए, जब कहानी में नायक की भूमिका को खलनायक की तरह रचा गया! लेकिन, फिर भी उस पात्र के साथ दर्शकों की सहानुभूति बनी रही।   
    ज्ञान मुखर्जी निर्देशित 'किस्मत' (1943) ऐसी ही फिल्म थी, जिसमें हीरो अशोक कुमार का किरदार खलनायक की तरह था। शायद यह पहली ऐसी हिंदी फिल्म थी, जो खलनायक प्रधान बनी। यह एक युवा चोर की कहानी थी। इसमें अशोक कुमार का किरदार 'शेखर' का था जो चोर-बदमाश का था। सामाजिक रूप से अस्वीकार्य होने पर भी वो दया, करुणा, प्रेम और मित्रता की मिसाल होता है। यह पहली ऐसी फिल्म थी जिसने एक करोड़ की कमाई की थी। ये फिल्म लगातार तीन साल तक थिएटर पर लगी रहने वाली भी पहली फिल्म थी। 1957 में आई 'मदर इंडिया' भी एंटी-हीरो फिल्म ही मानी जाएगी। इसमें सुनील दत्त की भूमिका नकारात्मक जरूर थी, पर उन्होंने दर्शकों का दिल जीत लिया था। वे डाकू थे, पर गरीबों के मसीहा भी थे। बाद में सुनील दत्त ने 36 घंटे (1974) और मुझे जीने दो (1963) में भी निगेटिव कैरेक्टर निभाए थे। 
  'गंगा जमुना' (1961) भी ऐसी ही फिल्म थी, जिसमें दिलीप कुमार ने दो भाइयों को अपराध के खिलाफ लड़ने की प्रवृत्ति को उबारा था। दिलीप कुमार ने गंगा की भूमिका की थी, जो अन्याय का खात्मा करता है। उसका भाई जमुना पुलिस में रहता है। दोनों भाइयों के बीच टकराव भी होता है। लेकिन, कहानी में डाकू बना पात्र दर्शकों को ज्यादा प्रभावित करता है। कुछ इसी तरह की कहानी 'दीवार' में थी, जिसमें अमिताभ बच्चन ने अपने किरदार को जीवंतता से निभाया था। कुछ ऐसा ही रमेश सिप्पी की 'शोले' (1975) में भी था। ये भले ही क्रूर डाकू गब्बर सिंह के आतंक की कहानी हो, पर दर्शकों को यही डाकू ज्यादा याद रहा। जय और वीरू बने अमिताभ और धर्मेंद्र उसके बाद याद आते हैं। फिल्म में गब्बर सिंह वो खलनायक था, जिसने दो नायकों को उबारने में पूरी मदद की। 
  1978 में आई 'डॉन' में भी अमिताभ बच्चन ने अंरवर्ल्ड डॉन की नकारात्मक भूमिका निभाई और ये अमिताभ की सबसे सफल फिल्मों में एक है। फिल्मों में सामान्यतः ये खलनायक वाला किरदार है, पर 'डॉन' में ये नायक ने निभाया। बाद में इसका रीमेक भी बना। इसमें अमिताभ वाला रोल शाहरुख खान ने अदा किया था। अमरीश पुरी अपने समयकाल के सबसे सफल खलनायक रहे हैं। उनकी भारी संवाद अदायगी और आँखों से टपकती क्रूरता का अपना अलग ही अंदाज था। लेकिन, 'मिस्टर इंडिया' (1987) में उनका मोगेम्बो वाला पात्र बेहद दिलचस्प था। खलनायक होते हुए दर्शकों को उस पर कभी गुस्सा नहीं आया। उनका एक डायलॉग 'मोगेम्बो खुश हुआ' बरसों तक बच्चे-बच्चे की जुबान पर रहा। 
     रामगोपाल वर्मा की बेहतरीन फिल्मों में 'सत्या' (1998) को गिना जाता है। इस फिल्म में संगठित अपराधों की कहानी थी। फिल्म का कथानक सौरभ शुक्ला और अनुराग कश्यप ने लिखा था। इसमें मनोज बाजपेयी ने भीखू म्हात्रे का किरदार निभाया था। एक अपराधी किरदार होते हुए भी भीखू म्हात्रे से दर्शकों को सहानुभूति होती है। 2006 में आई विशाल भारद्वाज की फिल्म 'ओंकारा' को आज भी दर्शक जिस किरदार की वजह से याद करते हैं, वो था ईश्वर त्यागी उर्फ ’लंगडा त्यागी' जिसने जो अपने अभिनय से दर्शकों को प्रभावित किया था। सैफ अली खान ने इस किरदार को बखूबी निभाया था। शाहिद कपूर की फिल्म 'कमीने' (2009) भी ऐसी ही फिल्म थी जिसमें जुड़वां बच्चों में होने वाला मुकाबला बताया गया था। शाहिद ने फिल्म में नकारात्मक किरदार निभाया था। फिल्म में यथार्थवादी किरदारों की सराहना की गई और बताया गया था कि अच्छाई और बुराई का कोई अंत नहीं होता! इन दोनों के बीच के अंतर को समझा जाना जरुरी है। 
  2012 में प्रदर्शित फिल्म 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' की तुलना अक्सर 'ओंकारा' से की जाती है। एक बड़े दर्शक वर्ग ने इस फिल्म को बेहद पसंद किया था। इसमें मनोज बाजपेयी ने खलनायक सरकार खान का रोल निभाया था। फिल्म में यह ऐसा किरदार है, जिससे दर्शकों ने नफरत नहीं की। शेक्सपियर की कृति 'हेमलेट' के जीवन पर बनी फिल्म हैदर (2014) में शाहिद कपूर की भूमिका को भी नायक जैसा नहीं कहा जा सकता। इसमें हैदर (शाहिद कपूर) एक ऐसा व्यक्ति है, जो अपने पिता की तलाश में निकलता है और अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है। फिल्म देखते हुए कभी महसूस नहीं होता कि हैदर का किरदार नकारात्मक है। कुछ ऐसा ही 'पद्मावत' देखते हुए दर्शकों को खिलजी (रणवीर सिंह) को देखकर लगा। खिलची के क्रूर किरदार से दर्शकों को लगाव सा हो जाता है। 
   शाहरुख खान ने भी 'डर' और 'अंजाम' जैसी फिल्मों में जो किरदार निभाए, वो खलनायक जैसे ही थे। 1993 में बनी 'डर' एक थ्रिलर प्रेम कहानी थी। इसमें शाहरुख ने पागल प्रेमी का किरदार निभाया था। जूही चावला के लिए शाहरुख ने जो पागलपन दिखाया, उसे देखकर दर्शकों को गुस्सा नहीं आया, बल्कि सहानुभूति हुई। ऐसे ही 1994 की फिल्म 'अंजाम' गलती के अंजाम पर केंद्रित है। यह महिलाओं के पर किए अत्याचारों पर बनी थी। इसमें भी शाहरुख ने नकारात्मक किरदार निभाया था, जिसके लिये उन्हें भी फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था। वैसे शाहरुख ने 'बाजीगर' और 'डुप्लीकेट' में भी निगेटिव किरदार ही निभाए थे।  
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Sunday, December 13, 2020

साधारण से हर्षद की असाधारण कहानी!

हेमंत पाल

    नोरंजन की दुनिया पर कोरोना लॉक डाउन ने बहुत गहरा असर डाला है। सिनेमाघरों के बंद होने के बाद दर्शकों का बड़ा वर्ग वेब सीरीज देखने में व्यस्त हो गया! सबने अपनी पसंद के मुताबिक ओटीटी प्लेटफॉर्म चुन लिए। लेकिन, कुछ वेब सीरीज ऐसी भी आई, जिन्हें हर तरह के दर्शकों ने पसंद किया। इन्हीं में से एक है 'सोनी-लिव' पर आई हंसल मेहता की 'स्कैम 1992: द हर्षद मेहता स्टोरी' जो शेयर बाजार में हुए एक बड़े घोटाले पर आधारित है। 1992 में बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में हुए घोटाले में हर्षद मेहता चर्चा में आए थे। ये वेब सीरीज़ उसी घोटाले की परतें खोलती है। इस वेब सीरीज़ को आईएमडीबी (इंटरनेट मूवी डाटाबेस) पर 9 से ऊपर की रेटिंग मिली। इसे अब की देश की 'मोस्ट लाइक्ड इंडियन वेब सीरीज़' बताया जा रहा है। सुचिता दलाल की किताब पर बनी इस वेब सीरीज में दिखाया गया कि कैसे हर्षद मेहता पूरे शेयर मार्केट को चलाने लगता है। इस वेब सीरीज़ हर्षद मेहता की किरदार प्रतीक गांधी ने निभाया, जिसे बहुत ज्यादा पसंद किया गया। उनकी आँखें, बॉडी लैंग्वेज, डायलॉग डिलीवरी और अभिनय ने पात्र के किरदार के साथ पूरा न्याय किया। हंसल मेहता सच्ची घटनाओं पर फ़िल्में बनाते आए हैं। उनकी यह वेब सीरीज ऐसी ही घटना पर केंद्रित है। 
  हर्षद मेहता के जीवन का शुरूआती समय बहुत परेशानियों में बीता था। साधारण से परिवार के हर्षद ने लम्बे समय तक आर्थिक मुश्किलों को भोगा था। इस वेब सीरीज की शुरुआत भी हर्षद की ऐसी ही मुश्किलों को दिखने के साथ की गई। इसके बाद भी हर्षद के सपने बहुत बड़े थे। वह साधारण जिंदगी नहीं जीना चाहता था। लेकिन, उसे कभी गैर कानूनी सोच वाला व्यक्ति भी नहीं बताया गया। वह बैंक में क्लर्क का काम करता है, सड़क पर सामान बेचता है। इसी के बीच वह एक दिन संयोग से शेयर मार्केट की तरफ रुख कर लेता है। इसके बाद उस मार्केट की दुनिया में हर्षद इतना खो जाता है कि असाधारण व्यक्ति बन जाता है।  
     वेब सीरीज में बताया गया कि वो किसी उसूल के काम करता है और रिस्क लेने में देर नहीं करता! वो ‘रिस्क है, तो इश्क है’ वाला जुमला हमेशा बोलता रहता है और शेयर मार्केट में पैसा लगाता है। जल्दी ही वह मार्केट में अपना नाम बना लेता है और भाई अश्विन मेहता के साथ खुद की कंपनी खोल लेता है। खुद पैसे बनाने और दूसरों को हिस्सा देने के चक्कर में हर्षद शेयर मार्केट के साथ ही मनी मार्केट का बिग बुल बन जाता है। बैंकिंग सिस्टम की कमज़ोर कड़ियों को परखकर हर्षद ने सारा गोलमाल किया था। बताया गया है कि जब बैंकों को पैसे की ज़रूरत पड़ती थी, वे सरकारी बॉन्ड को कुछ समय के लिए गिरवी रखकर पैसा लेते थे! हर्षद बैंकों से 15 दिन का लोन लेता और उसे शेयर मार्केट में लगा देता। 15 दिन में वो बैंक को मुनाफे के साथ पैसा लौटा देता था।  
   निर्देशक हंसल मेहता को सच्ची घटनाओं पर फ़िल्में बनाने के लिए पहचाना जाता है। ओमर्टा, शाहिद और 'अलीगढ़' जैसी फ़िल्में बना चुके हंसल को अलग तरह की विचारधारा और कहानियों को नया ट्विस्ट देने के लिए जाना जाता है। उन्होंने हर्षद मेहता के इस कारनामे को बहुत शिद्दत से ओटीटी के परदे पर उतारा है। इस वेब सीरीज की सबसे बड़ी खासियत है समयकाल, जिसका फिल्म में बहुत ध्यान रखा गया है। 'स्कैम 1992' की पूरी कहानी में बेहद कसावट है, कहीं कोई झोल दिखाई नहीं देता। इस वेब सीरीज़ में संवाद, फोटोग्राफी, अभिनय, कास्टिंग के साथ उस समय के शेयर मार्केट का जो माहौल बनाया, वो बेहद दिलचस्प है और वही इस वेब सीरीज की जान है। 
   देश के बैंकिंग सिस्टम को हिला देने वाले इतने बड़े घोटाले के बाद भी हंसल मेहता ने हर्षद मेहता को कहीं खलनायक की तरह पेश नहीं किया! कहानी को इस तरह फिल्माया गया है कि दर्शक खुद तय करें कि हर्षद ने जो किया वो सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था या उसने सिस्टम की खामियों में अपना फ़ायदा ढूंढा था। वास्तव में ये घोटाला था भी नहीं! जिस दर्शक को शेयर बाज़ार की बारीकियों का पता न हो, उसे यह वेब सीरीज़ बोर नहीं करती। ये मनोरंजक होने के साथ शेयर मार्केट, मनी मार्केट और इस पूरे कारोबार की जानकारियां देती है। अलग सा विषय होने के बावजूद 'स्कैम 1992: द हर्षद मेहता स्टोरी' इसलिए पसंद की गई, क्योंकि इसकी पटकथा और इसका संपादन बेहद चुस्त और रोचक है। इसके लिए हंसल मेहता के साथ हर्षद मेहता का किरदार निभाने वाले प्रतीक गाँधी की भी तारीफ करना होगी कि उनके अभिनय ने दर्शकों को बांधकर रखा!
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Sunday, December 6, 2020

सिनेमा और किसानों का जीवन दर्शन

हेमंत पाल

   भारतीय सिनेमा का एक लम्बा दौर गाँव पर केंद्रित फिल्मों का रहा। शुरूआत के दौर में धार्मिक और पौराणिक फ़िल्में बनती रही। रामायण और महाभारत के प्रसंगों को फिल्म की कहानियों का विषय बनाया गया। इसके बाद फ़िल्मकारों की नजर पारिवारिक समस्याओं और महिलाओं की पीड़ा पर पड़ी। इस समय काल में कई ऐसी फ़िल्में बनी, जिनमें गाँव थे, खेत-खलिहान थे, बदमाश मुखिया था, सूदखोर साहूकार था, पर किसान का जमीन  दर्द नदारद रहा! शुरू के करीब पाँच दशक तक फिल्मों में गाँव तो बहुत दिखाए गए, पर किसान नहीं! डाकुओं को गाँव लूटते, खेतों को जलते और साहूकारों को ब्याज वसूलते भी कई फिल्मों में दिखाया, पर किसानों के दर्द से फिल्म का परदा बचता रहा! सौ साल से ज्यादा पुराने हिंदी फिल्म इतिहास में ऐसी दस फ़िल्में भी नहीं खोजी जा सकती, जिसकी कहानियों में किसानों को मुख्य पात्र के रूप में उबारा गया हो! यही कारण रहा कि शहरी जीवन में पले-बढे लोग किसान के जीवन को सही ढंग से समझ नहीं सके।     
    सिनेमा की नजर में शायद किसान कभी फिल्म का हीरो नहीं बन सकता! क्योंकि, उसमें फ़िल्मी ग्लैमर नहीं होता! परदे पर तो वही कहानियां बिकती हैं, जिसमें दर्शकों को आकर्षित करने और बॉक्स ऑफिस पर नोट बटोरने की क्षमता होती है। ये सब किसान के जीवन में नहीं होता! यही वजह है कि देश का पेट भरने वाले हीरो के बारे में कहानियां गढ़ने की हिम्मत बहुत कम फिल्मकारों ने की! किसानों की पीड़ा से समाज का बड़ा हिस्सा अलहदा भी इसलिए रहता है, कि उसे किसानों की समस्याओं का पता ही नहीं होता। लेकिन, फिर भी कुछ चुनिंदा फ़िल्में जरूर बनी, जिनमें किसान और गाँव का वास्तविक दर्द दिखाई दिया! ऑस्कर पुरस्कारों में विदेशी भाषा की फिल्मों की श्रेणी में भारत की पहली पसंद की जाने वाली फिल्म 'मदर इंडिया' भी किसान के जीवन को दर्शाने वाली ही फिल्म थी! गौर करने वाली एक सच्चाई यह भी है कि किसानों पर जो भी गिनती की फ़िल्में बनी, सभी आजादी के बाद ही बनाई गई!   
    माना जाता है कि किसानों के सही दर्द को पहचान कर उसे परदे पर लाने वाली पहली फिल्म 1953 में 'दो बीघा जमीन' आई थी। इस फिल्म में किसान के अंतहीन दर्द को परदे पर गढ़ा गया था, जो पूरा जीवन साहूकार के कर्ज के दुष्चक्र में फंसा रहता है। फिल्म में भारतीय परिवेश में पले किसान की ऐसी कहानी थी, जो सच्चाई का आईना दिखाती है। किसी किसान की जमीन साहूकार छल से उससे छीन ले, तो उसकी पीड़ा का अहसास ही इस फिल्म की कहानी का केंद्र बिंदू था। बलराज साहनी ने उस शम्भू किसान की भूमिका में जान डाल दी थी, जिसकी जमीन साहूकार 65 रुपए के कर्ज के बदले छीन लेता है। अपने परिवार को बचाने की खातिर शम्भू गांव से शहर जाकर मजदूरी करने लगता है। समीक्षकों ने इस फिल्म को आजादी के बाद गाँव में पूंजीवाद की घुसपैठ की शुरूआत बताया था। कुछ लोगों का यह भी मानना था कि देश के विकास की सबसे ज्यादा कीमत किसान ने ही दी है और ये फिल्म उसी विकास की कलई खोलती है।     
     इसके बाद 1957 में आई फिल्म 'मदर इंडिया' में भी ऐसी महिला किसान राधा को कर्ज की पीड़ा से कराहते बताया गया था। उसका पति शामू घर से चला जाता है और एक बेटा डाकू बन जाता है। इस फिल्म में भी साहूकार के कारण उस महिला के जीवन की पूरी कहानी बदल जाती है। पंचायत फैसला देती है, कि बेटे की शादी के लिए राधा की सास ने जो कर्ज लिया था, उसके बदले बेटे-बहू को फसल का एक तिहाई हिस्सा सुखीलाल को देना पड़ेगा। लेकिन, हालात बदलते हैं और राधा अकेली रह जाती है। इसे 1957 में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था और ऑस्कर में भी सराहा गया था। नर्गिस ने राधा के किरदार को जीवंतता दी थी और बिगड़ैल बेटे बने थे सुनील दत्त।
   1967 में मनोज कुमार ने 'उपकार' फिल्म बनाकर किसान को जवान के समकक्ष खड़ा करने की कोशिश की थी। साथ ही एक भाई के दूसरे के प्रति त्याग और बाद में इन भाइयों में मतभेद के बहाने किसानों की जमीन के बंटवारे के दर्द को भी सामने रखा था। इस फिल्म की कहानी ने किसानों की दुर्दशा और बेरुखी की वास्तविक कहानी कही थी। फ़िल्म को छ: फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था। इसी फिल्म के बाद दर्शकों ने मनोज कुमार को भारत कुमार कहना शुरू किया था।   
  इसके बरसों बाद आमिर खान जैसे प्रयोगधर्मी फिल्मकार और अभिनेता ने 2010 में 'लगान' बनाकर दर्शकों को चौंका दिया था। इस फिल्म का विषय किसानों को हमेशा सालने वाली सूखे की पीड़ा थी। लेकिन, फिल्म में ब्रिटिश राज में किसानों की लगान वाली परेशानी का हल अलग ही तरीके से निकाला गया था। इस बहाने ये संदेश भी दिया गया था, कि किसानों में यदि एकता हो, तो वे किसी भी बड़ी मुसीबत से जूझ सकते हैं। गाँव का किसान भुवन ब्रिटिश अफसर की क्रिकेट खेलने और जीतकर लगान माफ़ी की चुनौती मंजूर कर लेता हैं। जबकि, गाँव में कोई भी क्रिकेट खेलना नहीं जानता था! लेकिन, मैच किसानों के पक्ष में रहता है और वे लगान से मुक्त हो जाते हैं।           
   किसानों पर बनने वाली एक फिल्म 'पीपली लाइव' भी थी, जो 2010 में प्रदर्शित हुई। इस फिल्म को भी आमिर खान ने ही बनाया था। इस फिल्म ने किसानों के बहाने समाज के कई हिस्सों पर चोट की थी। किसानों के लिए योजना बनाने वालों, उसे अमल में लाने वाले अफसरों और किसानों मरने पर उसे सनसनीखेज खबर बनाने वाले पत्रकारों को भी फिल्म के जरिए आईना दिखाया गया था। फिल्म का केंद्र सरकार की उस कमज़ोरी का खुलासा था, जिसके पास किसान के मरने पर तो मुआवजा देने का प्रावधान था, पर जिंदा किसान के लिए कोई योजना नहीं थी! वैसे 1976 में आई फिल्म 'मंथन' में देश की श्वेत क्रांति के दौरान की दुर्दशा दिखाई गई थी। फिल्म में 5 लाख किसानों को 2-2 रुपए जमा करके श्वेत क्रांति को रूप देते हैं। इस फिल्म को उस साल श्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। इसके अलावा 2009 में आई फिल्म 'किसान' में किसानों की आत्महत्या संबंध‍ित मुद्दे को उभारने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बन सकी थी। 
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Saturday, November 28, 2020

'बिग बॉस' को नकार देने की दास्तान!

- हेमंत पाल 

      टीवी पर रियलिटी शो देखने वाले दर्शकों की अलग ही जमात है! ये दर्शक नियमित रूप से ये शो देखते हैं और उन पर चर्चा भी करते हैं। टीवी पर मनोरंजन कार्यक्रमों की शुरुआत में आने वाले अन्नू कपूर के गीतों वाले शो 'अंताक्षरी' को अभी तक के सबसे पसंदीदा रियलिटी शो में गिना जाता है। उसी ने दर्शकों को शो से जोड़ा और एसएमएस के जरिए सर्वश्रेष्ठ प्रतियोगी चुनने की परंपरा डाली! ये आज भी अलग रूप में ही सही, पर जारी है। टीवी पर  सालभर नाच-गानों के रियलिटी शो आते रहते हैं। इनके बीच अमिताभ बच्चन का 'कौन बनेगा करोड़पति' भी करीब 3 महीने तक मनोरंजन के साथ दर्शकों का ज्ञान बढ़ाता है! लेकिन, इसके साथ 'बिग बॉस' जैसा शो भी टीवी दर्शकों की पसंद में शामिल है! इसके सूत्रधार सलमान खान होते हैं! इस शो का अपना अलग ही कांसेप्ट है। इसमें बाहर की दुनिया से अलग-थलग कर दिए गए करीब दर्जनभर प्रतियोगियों को एक घर में कैद करने उनके धैर्य, आत्मविश्वास और अनजान लोगों के साथ करीब तीन महीने रहने की परीक्षा होती है। वास्तव में ये एक मनोवैज्ञानिक नजरिए का विदेशी शो है! हमारे यहाँ इसके 13 सीजन हो चुके हैं और अभी 14वां सीजन चल रहा है! इस रियलिटी शो के कई सीजन बेहद सफल रहे! लेकिन, बिग बॉस के 14वें सीजन को दर्शकों ने नकार दिया।    
     अभी तक माना जाता था कि जब 'बिग बॉस' सीजन शुरू होता है, वह हमेशा टीवी पर नंबर वन पर रहता है! लेकिन, इस बार शायद दर्शकों ने इस शो को पसंद नहीं किया। ये सिर्फ अनुमान नहीं, सच्चाई है, जिसका सबूत टीवी कार्यक्रमों को उनकी लोकप्रियता के आधार पर नंबर देने वाली 'टीआरपी' ने भी दिया। 'टीआरपी' में अव्वल रहने के लिए सभी टीवी शो में मुकाबला चलता रहता है। क्योंकि, ये सिर्फ लोकप्रियता का प्रमाण नहीं, बल्कि प्रायोजक भी चाहते हैं कि उनका शो सबसे आगे रहे! यदि ऐसा नहीं होता, तो प्रायोजकों के दरकने का खतरा बढ़ जाता है। इस कोशिश में सलमान खान का शो 'बिग बॉस' कम से कम इस बार तो बुरी तरह असफल साबित हुआ। शो को अभी दो महीने हुए, पर इसे एक बार भी 'टीआरपी' की टॉप-फाइव लिस्ट में जगह नहीं मिली। जबकि, अभी तक 'टीआरपी' में 'बिग बॉस' नंबर वन रहता था। दर्शकों के नज़रिए से भी इस बार शो का काफी बुरा हाल है। 14वें सीजन की टैगलाइन रखी गई '2020 में सीन पलटेगा!' सीन तो पलटा, पर पॉजेटिव नहीं निगेटिव सेंस में। दर्शक जितना 'बिग बॉस' को देखकर बोर हुए, उतना तो शायद लॉकडाउन ने भी उन्हें बोर नहीं किया! इस बार शो के साथ ऐसा क्यों हुआ, इसके कई कारण गिनाए जा सकते हैं!  
     शो शुरू होने से पहले दावे किए गए थे, कि 'बिग बॉस' दर्शकों को फुल एंटरटेन करेगा। लेकिन, शो में जो भी कंटेस्टेंट्स आए हैं उन्हें देख लगता है कि उनका मनोरंजन से दूर तक कोई वास्ता नहीं है। सभी बोरिंग और बेवजह झगड़ालू नजर आते हैं, जो अब शो के मेकर्स की बड़ी परेशानी बन गई! उनके सामने शो को मनोरंजक बनाने की चुनौती खड़ी हो गई है। कंटेस्टेंट्स का फ्लॉप होना, मेकर्स के सिलेक्शन पर भी सवाल खड़े करता है। अभी तक के हर सीजन में 13-14 में से 4 या 5 ऐसे चेहरे होते थे, जिन्हें दर्शक पहचानते हैं। पूनम ढिल्लो, श्वेता तिवारी, रवि किशन और हीना खान जैसे कलाकारों ने इस शो में भाग लिया। लेकिन, इस बार कोई भी ऐसा कंटस्टेंट नहीं, जो दर्शकों का पहचाना हुआ हो! ऐसा भी लगता है कि सभी ये सोचकर आए हैं कि वे शो में जितना झगड़ेंगे, उतना ही कैमरे पर दिखेंगे और पसंद किए जाएंगे। एजाज खान, कविता कौशिक, रुबीना दिलैक, पवित्रा पुनिया और निक्की तंबोली ऐसे चेहरे नहीं हैं, जिन्हें घर-घर में पहचाना जाता हो! लेकिन, उनके तेवर उससे कम नहीं है। एजाज, कविता और रुबीना तो हमेशा लड़ते हुए ही दिखते हैं। इनके झगडे को मनोरंजन भी नहीं कहा जा सकता, इसलिए दर्शकों ने 'बिग बॉस' को नकार दिया। 
       शो में कंटेस्टेंट रहे और अपने आपको एक्टर मानने वाले कमाल आर खान ने 'बिग बॉस-14' के पहले एपिसोड की ही खिल्ली उड़ाते हुए इसे अब तक का सबसे ख़राब शो बताया था। लेकिन, तब उनकी टिप्पणी को गंभीरता से नहीं लिया गया! पर, अब ये बात सही साबित हो रही है। शायद ये पहला ऐसा 'बिग बॉस' है, जिसमें कोई बड़ी सेलिब्रिटी नहीं, पर सबके मिज़ाज आसमान पर हैं। इस बार के कंटेस्टेंट्स में न तो स्पार्क है और न शो को लेकर कोई जुनून! किसी की भी टास्क में रूचि दिखाई नहीं देती। फिर चाहे वो इम्यूनिटी जीतने की टास्क हो या कप्तान बनने की! कंटेस्टेंट्स के बीच हर वक़्त बेवजह का झगड़ा होता नजर आता है। ख़ास बात ये कि अदृश्य 'बिग बॉस' का अनुशासन भी टूट रहा है। अभी तक देखा गया कि कंटेस्टेंट कितनी भी उच्श्रृंखलता करें, 'बिग बॉस' के आदेश का उल्लंघन करने हिम्मत नहीं करते थे! लेकिन, इस बार के कंटेस्टेंट किसी की नहीं सुन रहे! शनिवार-रविवार को सलमान खान के 'वीकेंड का वार' की भी कई बार धज्जियाँ उड़ती देखी गई है! ऐसे में कहीं ऐसा न हो, कि शो को समय से पहले ख़त्म कर दिया जाए!    
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Thursday, November 26, 2020

मुखौटेबाज नेताओं को पहचानकर सजा देने की चुनौती!

     मध्यप्रदेश के उपचुनाव में भाजपा के मुकाबले कांग्रेस बहुत पीछे रही! पार्टी के जो नेता पहले सभी 28 और बाद में कम से कम 20 सीटें जीतने के दावे कर रहे थे, पर हाथ आई सिर्फ 9 सीटें! कांग्रेस की ये हार किसी एक नेता की नहीं, पूरे संगठनात्मक ढांचे की हार है। पार्टी को भी अब इस बात का अहसास हो गया कि उसका बेहद संगठन कमजोर है। यही कारण है कि कांग्रेस ने संगठन में बड़े स्तर पर बदलाव का फैसला किया। हवाबाज, झांकीबाज और अख़बारों में फोटो राजनीति करने वाले नेताओं की संगठन से छुट्टी करने का मन बना लिया गया है। साथ ही कई जिलों के निष्क्रिय पार्टी अध्यक्षों को भी बदलने की तैयारी है। उन मुखौटेबाज नेताओं की पहचान भी की जा रही है, जिन्होंने उपचुनाव में कांग्रेस की टोपी लगाकर भाजपा को चुनाव में जिताने का काम किया। क्योंकि, कांग्रेस के कुछ नेता और कार्यकर्ता तो सिंधिया समर्थकों के साथ भाजपा में चले गए, पर कुछ ऐसे भी थे, जिन्होंने कांग्रेस में रहकर उपचुनाव में भाजपा उम्मीदवारों की मदद की! अब समय आ गया, जब कांग्रेस को ऐसे चेहरों की पहचान करके उन्हें बेनकाब करना होगा।                 
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- हेमंत पाल 

     प्रदेश में 28 उपचुनाव के नतीजे आने के साथ ही कमलनाथ के खिलाफ पार्टी में गुबार उठने लगा था। उनकी नेतृत्व क्षमता पर उंगली उठाई जाने लगी थी। जब नतीजों के रुझान आ रहे थे, तभी कांग्रेस नेता गोविंद सिंह ने कमलनाथ को निशाने पर भी लिया। उनका कहना था कि टिकट बंटवारे में कमलनाथ ने किसी किसी की नहीं सुनी! अपनी मर्जी से सर्वे की आड़ में ही टिकट बांट दिए गए। बाद में सीहोर के एक कांग्रेस नेता हरपालसिंह ठाकुर ने खुले आम मांग की, कि कमलनाथ को इस्तीफा देना चाहिए। 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। अब वक्त है कि पार्टी के किसी नए नेता को मौका दिया जाए। ये दो नेता तो खुलकर बोले, पर पार्टी में ऐसा सोचने वालों की भी कमी नहीं है। क्योंकि, जब से कांग्रेस ने कमलनाथ को मध्यप्रदेश की कमान सौंपी, वे कोई कमाल नहीं करते हुए भी कुर्सी पर जमे हैं। प्रदेश में सरकार होने के बावजूद लोकसभा चुनाव में पार्टी को बहुत बुरी हार मिली। लेकिन, कमलनाथ की कुर्सी हिली तक नहीं! उसके बाद पार्टी में इतनी बड़ी बगावत हुई, पर अध्यक्ष पद उनसे नहीं लिया गया। उपचुनाव की सारी जिम्मेदारी भी उन्हें दे दी गई। अब, जबकि पार्टी उपचुनाव में बुरी तरह पिछड़ गई, उन्हें नए सिरे से संगठन खड़ा करने का काम दिया गया है।  
   अब समय आ गया, जब कमलनाथ को अपनी संगठनात्मक क्षमता को साबित करना होगा। उसके लिए जरुरी है कि प्रदेश में बदली राजनीतिक परिस्थितियों में कांग्रेस संगठन अपने उन हवाबाज और नकली नेताओं से मुक्ति पाए, जो कहीं न कहीं इस उपचुनाव में हार का कारण बने। पार्टी ने संगठन के उन चेहरों की पहचान भी कर ली है, जिनके होने या न होने से पार्टी में फर्क नहीं पड़ेगा। सुवासरा में पार्टी की हार के जिम्मेदार कुछ नेताओं को बाहर का रास्ता भी दिखाया गया! निशाने पर वे लोग पहले हैं, जो उपचुनाव में हारी हुई 19 सीटों के प्रभारी थे। पार्टी को ये भी पुख्ता खबर है, कि कांग्रेस के सभी नेता और कार्यकर्ता सिंधिया समर्थकों के साथ भाजपा में नहीं गए! जो बच गए, उन्होंने उपचुनाव में कांग्रेस के लिए काम नहीं किया। कांग्रेस का मुखौटा लगाकर उन्होंने भाजपा को जिताने में पूरी मदद की और नतीजा सामने है। बताते हैं कि सेबोटेज दोनों पार्टियों में हुआ, पर कांग्रेस में कुछ ज्यादा। ग्वालियर-चंबल इलाके में भाजपा के वोटों में सेंध लगी, तो मालवा-निमाड़ में कांग्रेस उम्मीदवार को हराने में छुपे कांग्रेसियों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। कमलनाथ ने हारी हुई सभी 19 सीटों के प्रभारियों और जिला अध्यक्षों से हार कारणों पर एक विस्तृत रिपोर्ट मांगी है। इन्हीं रिपोर्ट के आधार पर कांग्रेस संगठन में फेरबदल की रुपरेखा तय होगी। इसका कारण ये भी है कि सारी स्थितियां अनुकूल होने के बावजूद पार्टी उपचुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकी।   
    उपचुनाव में हार के बाद कमलनाथ से खुन्नस खाने वाले पार्टी नेताओं ने उन्हें जिम्मेदार बताकर रास्ते से हटाने की कोशिश की थी, पर पार्टी ने फ़िलहाल ऐसा कोई फैसला नहीं किया कि कमलनाथ प्रदेश से बाहर जाएंगे। हार के बाद भी पार्टी ने उनपर भरोसा बनाए रखा है। इसका आशय यह कि संगठन में बदलाव की चाभी भी उन्हीं के हाथ में होगी। यही कारण है कि कमलनाथ फिर चुनावी मूड में दिखाई दे रहे हैं। उनकी सक्रियता से लग रहा है कि पंचायत और नगर निकाय चुनाव की कमान भी उन्हीं के हाथ में होगी। उपचुनाव में दावे से कम सीटें जीतने के बाद उन्होंने खुन्नस खाए नेताओं से कहा कि मैं मध्यप्रदेश छोड़कर नहीं जा रहा! 2023 का चुनाव हम मिलकर लड़ेंगे। इसका स्पष्ट आशय है, कि कमलनाथ न सिर्फ पार्टी अध्यक्ष बने रहेंगे, उन्हें संगठन में बदलाव के लिए भी फ्री हेंड रहेगा। कमलनाथ ने भी साफ़ कर दिया कि पार्टी ऐसे नेताओं और कार्यकर्ताओं को बख्शने के मूड में नहीं है, जिन्होंने उपचुनाव में पार्टी के खिलाफ काम किया और दूसरी बार कांग्रेस को धोखा दिया। पार्टी में इस बात की सुगबुगाहट भी है। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल यह है कि कांग्रेस उन काली भेड़ों पहचान कैसे करेगी। चुनौती मुश्किल तो है, पर नामुमकिन नहीं! कांग्रेस के सामने फ़िलहाल स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव की चुनौती है। उपचुनाव में सेबोटेज के बावजूद यदि पार्टी ने मुखौटेबाजों पर कार्रवाई को रोका है, तो उसका कारण यही चुनाव है। संगठन शायद नए दुश्मन खड़े करना नहीं चाहती, इसलिए अभी खामोश है। इस चुनाव में 50 जिला पंचायतों के 843 और 313 जनपद पंचायतों के 6816 जनपद सदस्यों का निर्वाचन होना है। प्रदेशभर में पंचायतों की संख्या 23040 है, जिनमें से 22795 पंचायतों में चुनाव होना है। इन चुनाव में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही अपनी जीत तय करना चाहते है।  
   कमलनाथ को हमेशा राजनीतिक प्रयोगों के लिए जाना जाता है। 2018 के विधानसभा चुनाव में भी उन्होंने कई प्रयोग किए थे, जिससे पार्टी को बढ़त मिली थी! लेकिन, बाद की स्थितियाँ अनुकूल नहीं रही और पार्टी को बगावत के साथ सत्ता से हाथ धोना पड़ा। लेकिन, उपचुनाव में भी वे उतनी सीटें नहीं जीत सके कि सत्ता फिर उनके हाथ आ जाए। लेकिन, अब वे पार्टी में परफॉरमेंस ऑडिट की परंपरा शुरू कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि उन लोगों को संगठन में सही जिम्मेदारी वाले पद दिए जाएं, जो उस योग्य हैं! अब जो गाइड लाइन बनाने की योजना है, उसमें योग्यता के आधार पर ही प्रदेश कांग्रेस और जिला कांग्रेस में नेताओं को पद सौंपे जाएंगे। उनकी जिम्मेदारी भी तय की जाएगी, ताकि वे अनुशासन में बंधे रहें। बताते हैं कि सभी पदाधिकारियों का परफॉरमेंस कार्ड बनाया जाएगा। प्रदेश में ब्लॉक तक के पदाधिकारियों के कामकाज की साल में दो बार समीक्षा होगी! जिनका काम सही होगा, उन्हें ही आगे जिम्मेदारी दी जाएगी। ये भी कहा जा रहा है कि सिफारिश के आधार पर पद बांटने का काम बंद किया जा रहा है। लेकिन, ये सब आसानी से हो सकेगा, इसमें शक है। क्योंकि, कांग्रेस में गुटबाजी और अनुशासन का कोई दायरा तय नहीं है और नेताओं की जुबान पर लगाम भी नहीं लगी। कमलनाथ यदि अपने नेताओं की जुबान पर नकेल डाल सकें, तो यही उनके लिए बड़ी उपलब्धि होगी। 
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Sunday, November 22, 2020

पचास साल बाद भी 'जाॅनी मेरा नाम' कुछ खास

- हेमंत पाल

   फिल्मों के सदाबहार एक्टर देवआनंद में और उनकी फिल्मों में बहुत समानता है। उनकी ही तरह उनकी कुछ फिल्में सर्वकालिक और सदाबहार रही! समय की गर्द जिन्हें धुंधला नहीं सकी। ऐसी ही फिल्मों में पचास साल पहले आई 'जाॅनी मेरा नाम' ऐसी ही फिल्म है, जिसने साल के अंतिम महीने में प्रदर्शित होने के बावजूद साल की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म का दर्जा हांसिल किया था। उस साल ये फिल्म कमाई के मामले में पहले पांच स्थानों में रही फिल्मों सच्चा झूठा, आन मिलो सजना, पूरब और पश्चिम और ‘जीवन मृत्यु’ को पछाडते हुए पहली पायदान काबिज हुई थी। ‘जॉनी मेरा नाम’ पहली फिल्म है जिसने हिंदी सिनेमा के इतिहास में हर वितरण क्षेत्र में 50 लाख रुपए या उससे ज्यादा का कारोबार किया। इस फिल्म के लिए विजय आनंद ने अपनी निर्देशन फीस छह लाख तय की थी! ये हिंदी सिनेमा में किसी निर्देशक को तब मिली सबसे बड़ी फीस थी। वैसे तो ‘जॉनी मेरा नाम’ की दो भाइयों के मिलने, बिछडने और हीरों की तस्करी जैसे फिल्मी फार्मूले पर बनी थी! लेकिन, जिस तरह से विजय आनंद ने केए नारायण की कहानी का चुस्त स्क्रीन प्ले और एडीटिंग की, उसने इसे एक अलग ही फिल्म बना दी, जिसने ढाई घंटे की लम्बाई के बावजूद दर्शकों को एक पल भी सीट से हिलने नहीं दिया था। 
     इस फिल्म को गुलशन राय ने बनाया था, जिनका निर्माता बनने का किस्सा भी बहुत रोचक है। वे देवआनंद की नवकेतन फिल्म्स की फिल्मों का डिस्ट्रीब्यूशन किया करते थे और देव आनंद के काफी करीबी भी थे। बताते हैं कि एक फ़िल्मी पार्टी में राज कपूर ने उन पर फिकरा कसते हुए फिल्म वितरण के बजाए फिल्म बनाने की चुनौती दे डाली, जो उन्हें चूभ गई! उन्होंने यह बात देवआनंद को बताई, जिसके बाद 'जाॅनी मेरा नाम' फिल्म का प्लॉट बना और राज कपूर की चुनौती को स्वीकारते हुए इस फिल्म का नाम भी 'मेरा नाम जोकर' की तर्ज पर 'जाॅनी मेरा नाम' रखा गया। इसमें करण जौहर के ताऊ और  यश जौहर के बड़े भाई आईएस जौहर ने ट्रिपल रोल किए। यहीं से फिल्म में तिहरे रोल की शुरूआत मानी जाती है। बाद में दिलीप कुमार ने फिल्म बैराग, मेहमूद ने हमजोली और अमिताभ बच्चन ने ‘महान’ फिल्म में ट्रिपल रोल किए।
   जाॅनी मेरा नाम ने कमाई के साथ कई और भी कीर्तिमान बनाए। इसी फिल्म से देवआनंद और हेमा मालिनी की सफल जोडी बनी, जिसने हेमा को स्टार का दर्जा दिया। गुलशन राय को बतौर निर्माता भी इसी फिल्म ने स्थापित किया। उस समय बिहार जैसे राज्यों में शूटिंग का इंतजाम करना आसान नहीं था। लेकिन, विजय आनंद ने इस चुनौती को स्वीकार किया और नालंदा जाकर 'ओ मेरे राजा' गीत को फिल्माया जो फिल्म की जान बना। विजय आनंद ने समय बदलने के लिए भी स्टॉप फ्रेम का बहुत खूबसूरत इस्तेमाल किया है। इस कला में विजय आनंद का कोई सानी नहीं था। वे समय के साथ अपनी संपादन कैंची को इतनी तेजी से चलाते हैं कि दर्शक समझ नहीं पाता कि कब बच्चे बडे हो गए और कब भारत से नेपाल पहुंच गए।  
     'जाॅनी मेरा नाम' को सुपर हिट बनाने में राजेन्द्र कृष्ण के गीतों और कल्याणजी आनंदजी के संगीत का योगदान भी भुलाया नहीं जा सकता। सिनेमा हाल में पहली बार सुनने पर गीतों में जो ताजगी मिलती है, वही ताजगी आज भी बरकरार है। फिल्म के सभी गाने सुमधुर होने के साथ इनका फिल्मांकन भी निर्देशक विजय आनंद ने जिस तरह किया, वह एक मिसाल है। ‘पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले, झूठा ही सही’ में कैमरा एक खिड़की से दूसरी खिड़की होता हुआ घूमता रहता है। कैमरे के फ्रेम खत्म हो जाते हैं, लेकिन खिड़कियां खत्म नहीं होती! इसके अलावा 'ओ मेरे राजा' की लोकेशन भी शानदार है। 'छुप छुप मीरा रोये' जहां ईश्वरीय प्रेम का प्रतीक है, तो 'बाबुल प्यारे' बाप-बेटी के प्रगाढ़ रिश्तों की गहराई को दर्शाता है। जिस नशीले अंदाज में आशा भौंसले ने ‘हुस्न के लाख रंग ...’ गीत को गाया, उससे कहीं बेहतर अंदाज में पद्मा खन्ना ने इसे परदे पर प्रस्तुत किया। फिल्म का ये गीत अपनी रिलीज के दिनों का नंबर वन आइटम नंबर बना था। जिस जमाने में हाफ स्वीव्स ब्लाउज पहनना भी अंग प्रदर्शन का बड़ा कदम माना जाता हो, उस दौर में पद्मा खन्ना गाने में एक-एक करके अपने कपड़े उतारते दिखती हैं। मर्द और औरत की नीयत के इस मुकाबले में पद्मा खन्ना इक्कीस पड़ी! कहा जाता है कि इस गीत के फिल्मांकन के दौरान प्रेमनाथ बेकाबू हो गए गए थे! पर्दे पर गीत को देखते हुए दर्शकों ने चिल्लर लुटाने का सिलसिला भी इसी गाने से शुरू किया! 
   फिल्म की सबसे बड़ी खासियत इसके ढेर सारे धांसू सितारों का जमावड़ा भी रहा! हर एक्टर की भूमिका दमदार और फिल्म की गति बढाने में जरूरी लगती है। देव आनंद, प्राण, प्रेमनाथ, सज्जन, जीवन, इफ्तिखार, श्याम कुमार, रंधावा, तीन-तीन आईएस जौहर, हेमा मालिनी और पद्मा खन्ना पर विजय आनंद ने जिस तरह से नियंत्रण रखा, वो बेमिसाल है। 'जाॅनी मेरा नाम' जितने रंग बदलती है, दर्शक बार-बार चौंकता रहता है। क्लाइमेक्स के पहले प्री-क्लाइमेक्स, फिर फ़र्स्ट क्लाइमेक्स, सेकंड क्लाइमेक्स और थर्ड क्लाइमेक्स बुनने का जो फॉर्मूला विजय आनंद ने इस फिल्म में ईजाद किया, उसे बाद में तमाम फिल्मों के निर्देशकों ने अपनी फिल्मों में इस्तेमाल किया। फिल्म के टाइटल म्यूजिक के साथ क्लाइमेक्स का बैक ग्राउंड म्यूजिक भी बहुत लोकप्रिय हुआ था। कुल मिलाकर 'जाॅनी मेरा नाम' अजीब से नाम के बावजूद सफलता और सदाबहारता की एक नई इबारत लिख गई, जो आज भी धुंधली नहीं पड़ी है।  
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Thursday, November 19, 2020

कांग्रेस संगठन में चुनाव जीतने का माद्दा नहीं!

    राजनीति में हर हार कोई न कोई सबक देती है। यही सबक बाद में जीत का मददगार बनता है। लेकिन, कांग्रेस ने इस आदर्श तथ्य से कभी कुछ नहीं सीखा। मध्यप्रदेश में डेढ़ दशक बाद सरकार बनाने, फिर अपनी गलती से उसे गंवाने और उपचुनाव में बागियों की 25 में से 19 सीटें हारने के बाद भी कांग्रेस ने लगता नहीं कि कोई सीख ली होगी! कांग्रेस ने जिस तरह चुनाव लड़ा, उसमें भी कई खामियां थीं। सबसे बड़ी खामी है कमजोर संगठन। उपचुनाव के लिए जिस तरह की रणनीति भाजपा ने बनाई थी, कांग्रेस उसके आसपास भी दिखाई नहीं दी! सीधे शब्दों में कहें तो कांग्रेस में सिर्फ उम्मीदवार चुनाव लड़ता है और भाजपा में पूरी पार्टी जान लगा देती है। इसलिए कहा जा सकता है कि कांग्रेस के जो 9 उम्मीदवार चुनाव जीते हैं, वो अपने दम पर झंडा गाड़कर आए हैं।         
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- हेमंत पाल

   कांग्रेस ने लघु विधानसभा चुनाव कमलनाथ को सामने रखकर लड़ा, पर जंग हार गई। ये पहला मौका था, जब पार्टी ने कमलनाथ के नाम पर चुनावी जंग जीतने की कोशिश की। लेकिन, नतीजे दावों के अनुकूल नहीं रहे। 40 साल की राजनीति के अनुभवी खिलाड़ी और मैनेजमेंट गुरु कहे जाने वाले  कमलनाथ की चुनावी कूटनीति फेल हो गई। 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की किनारे वाली जीत ने कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनने का मौका दिया। लेकिन, उन्होंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि उनके पास निश्चिंतता से सरकार चलाने वाला बहुमत नहीं है। जितनी सीटें थीं, उनसे पाँच साल निकालना आसान नहीं था। उन्हें सभी को साधकर और पुचकारकर चलना था, पर वे ऐसा नहीं कर सके! कहा जाता है, कि कमलनाथ विधायकों तक से मिलने से परहेज करते थे। आम आदमी की तो उन तक पहुँच संभव ही नहीं थी! नतीजा ये हुआ कि उनके नीचे से सियासत की जमीन खींच ली गई! 2020 के उपचुनाव में पार्टी ने कमलनाथ को फ्रीहैंड दिया! उन्हें सारे फैसले करने का अधिकार दिया गया। किंतु, पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष होते हुए भी वे न तो संगठन का ठीक से उपयोग कर सके और न बागियों के सामने सही उम्मीदवार खड़े कर सके।  
     अब प्रदेश की सियासत में ये सवाल पूछा जा रहा है कि विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भाजपा 28 में से 19 सीटें जीतने में कैसे सफल हो गई! कांग्रेस क्यों अपनी सही रणनीति नहीं बना सकी! जीतने वाले उम्मीदवारों के चयन में कहां खामी रह गई! अब कांग्रेस सत्ता की दौड़ से बाहर होकर विपक्ष में आ गई, तो प्रदेश में कांग्रेस की राजनीति का रूख क्या होगा! प्रदेश के राजनीतिक हालात, कांग्रेस और भाजपा की राजनीति और विधानसभा के बाकी बचे तीन साल के नजरिए से देखा जाए तो कांग्रेस इन तीन सालों में कोई चमत्कार कर सकेगी, इसकी उम्मीद कोई नहीं कर रहा! जबकि, नैतिक शिक्षा का पाठ कहता है कि इस हार के बाद कमलनाथ को मुखिया पद से हट जाना चाहिए, पर कांग्रेस में सबसे बड़ा अकाल नेतृत्व का है। कमलनाथ के बाद कौन सही चेहरा हो सकता है, यदि इस नजरिए से तलाश की जाए तो मुश्किल से दो विकल्प भी ढूँढना मुश्किल है। दरअसल, ये पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व की कमजोरी है कि उसने मध्यप्रदेश में नए नेताओं को उभरने नहीं दिया। पिछले तीन दशक में प्रदेश की पूरी कांग्रेस 4 या 5 चेहरों के आसपास सिमटकर रही! इनमें से ज्यादातर अब रिटायरमेंट की उम्र में पहुँच चुके हैं!  
   इस उपचुनाव की बात की जाए तो ये कांग्रेस के 19 उम्मीदवारों की हार नहीं, बल्कि कांग्रेस नेतृत्व और संगठन की हार है। पार्टी ने 28 सीटों पर उम्मीदवार तय करने में स्थानीय नेतृत्व की पूरी तरह अनदेखी की। कई जिला कांग्रेस अध्यक्षों ने इस बात की शिकायत भी है कि पार्टी ने उनकी बातों को सुना तक नहीं और सर्वे से सही उम्मीदवार चुनने का तर्क दिया गया। ये सर्वे पार्टी ने किया या किसी निजी एजेंसी ने और किस आधार पर ये सर्वे किया गया इसका खुलासा नहीं किया गया! ये वास्तव में कोई गोपनीय सर्वे था या सिर्फ हव्वा इसका भी किसी को पता नहीं! ये शिकायत भी सामने आई कि जब जिला कांग्रेस से भेजी गई पैनल पर विचार ही नहीं किया गया, तो फिर सर्वे कैसे हुआ! जबकि, तरीका यह है कि निर्धारित नामों में से सही उम्मीदवार को सर्वे से चुना जाता है, पर कांग्रेस में ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसी का नतीजा है कि स्थानीय नेताओं ने भी अनमने ढंग से काम किया। जिस तरह की पैचीदा राजनीतिक हालात में ये उपचुनाव हुए, उसमें सभी को साथ लेकर चलने की जरूरत थी, पर पार्टी में एकजुटता कभी दिखाई नहीं देती।
  चुनावी राजनीति में भाजपा और कांग्रेस में बहुत अंतर है। भाजपा छोटे से छोटे चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा की तरह लेती है और पूरा संगठन उस प्रतिष्ठा की रक्षा करने में लग जाता है। उपचुनाव में भी यही हुआ। कांग्रेस ने बिकाऊ और टिकाऊ के मुद्दे को खूब हवा दी और अपनी 15 महीने की सरकार की उपलब्धियों को भुनाने की कोशिश तक नहीं की! जबकि, सस्ती बिजली का मुद्दा इतना सशक्त था कि वो मतदाताओं पर कमाल कर सकता था! पर, भाजपा ने उसे किसानों की कर्ज माफ़ी वाले मुद्दे पर इतना उलझा दिया कि कांग्रेस पूरे समय उसी की सफाई देती रही। कांग्रेस नेतृत्व की असफलता का एक कारण यह भी माना जा सकता है कि पार्टी प्रायवेट लिमिटेड बनकर रह गई! हर नेता की अपनी अलग कांग्रेस बन गई, जो प्रतिद्वंदी पार्टी के बजाए घर में ही ज्यादा लड़ती है।  
   जहाँ तक उपचुनाव में दोनों पार्टियों की जमीनी तैयारी का सवाल है, कांग्रेस ने ग्वालियर-चंबल इलाके में तो अपनी पकड़ जरूर बनाकर रखी, पर मालवा-निमाड़ की सातों सीटों को लावारिस छोड़ दिया! यहाँ उम्मीदवार खुद ही चुनाव लड़ रहा था, पार्टी कहीं नहीं थी! जबकि, भाजपा ने मालवा-निमाड़ की सीटों के लिए नियोजित वार-रूम बनाया! नेताओं को जिम्मेदारियां दी गई और उनसे लगातार फीडबैक लिया गया! पर, कांग्रेस में ऐसा कुछ नहीं हुआ! इंदौर में बने भाजपा के वार-रूम के मीडिया प्रभारी गोविंद मालू बताते हैं कि हमने हर सीट को चुनौती की तरह लिया! इसी का नतीजा था कि जिस सुवासरा और हाटपिपलिया सीट को कांग्रेस जीती हुई मानकर चल रही थी, वो कब उसके हाथ से निकल गई, उसे पता ही नहीं चला! यदि ग्वालियर-चंबल की तरह कांग्रेस ने मालवा-निमाड़ में भी वार-रूम बनाया होता तो तस्वीर कुछ तो अलग होती! ग्वालियर-चंबल में कांग्रेस ने केके मिश्रा को मोर्चे पर लगाया! वे चुनाव की घोषणा से पहले ही ग्वालियर में डट गए और उन्होंने भाजपा पर लगातार मीडिया हमले किए! चंबल में कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन में पार्टी की इस रणनीति का बड़ा योगदान है! लेकिन, क्या ये प्रयोग मालवा-निमाड़ में नहीं किया जाना था? वास्तव में ये कांग्रेस का अतिआत्मविश्वास नहीं, संगठनात्मक कमजोरी और कमलनाथ के सलाहकारों की नासमझी है। 
   इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जमीनी जुड़ाव के मामले में शिवराजसिंह के मुकाबले कमलनाथ बहुत पीछे हैं। चुनाव के मंच का शिवराजसिंह जिस तरह उपयोग करना जानते हैं, कमलनाथ उस तरह सोच भी नहीं सकते! जनता को सिर-माथे पर बैठाने की जो कला शिवराजसिंह को आती है, वो कई बार हवा पलटने में कामयाब हो जाती है। जनता के बार-बार हाथ जोड़ने से लगाकर धोक देने तक का फार्मूला कब, कहाँ और कैसे असर कर जाए, कहा नहीं जा सकता। जबकि, कमलनाथ की भाव भंगिमाओं में जो रुआब झलकता है, वो मतदाताओं को रास नहीं आता! इसके विपरीत शिवराजसिंह की भाव भंगिमाएं जनता को जोड़ती है, कमलनाथ में उसकी नितांत कमी है! चुनावी राजनीति में सबसे जरुरी है कि आमसभा से लौटता हुआ मतदाता उस नेता और पार्टी के प्रति सहानुभूति लेकर जाए! लेकिन, कांग्रेस के साथ ऐसे प्रसंग सुनाई नहीं दिए! कांग्रेस ने इस पूरे उपचुनाव में आरंभ से अंत तक कमलनाथ पर भरोसा किया। उम्मीदवारों के चयन, चुनावी रणनीति, प्रचार और स्टार कैम्पेनर सब कमलनाथ ही थे। ऐसे में ये कहना कहाँ गलत है कि उपचुनाव में कांग्रेस नहीं, बल्कि कमलनाथ हारे हैं। 
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Wednesday, November 11, 2020

कांग्रेस हारी या कमलनाथ की रणनीति!

 मध्यप्रदेश के उपचुनाव निपट गए। इसके नतीजे अनुमानों से थोड़ा अलग और भाजपा के दावों के नजदीक रहे। लेकिन, कांग्रेस के सारे दावे और अनुमान ध्वस्त हो गए। कांग्रेस ने अपने बागियों को ‘गद्दार’ और ‘धोखेबाज’ जैसे तमगे बांटकर चुनाव का माहौल अपने पक्ष में करने की जो कोशिश की थी, सब धरी रह गई। वास्तव में जो नतीजे सामने आए वो अनपेक्षित तो माने ही जा सकते हैं। क्योंकि, जो बागी नेता दो साल पहले कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीते थे, उनमें से अधिकांश अब भाजपा उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीत गए। कई तो पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा वोटों से चुनाव जीते। राजनीति का छिद्रान्वेषण करने वालों के लिए भी ये नतीजे अनपेक्षित ही कहे जाएंगे। भाजपा ने चुनाव में भले ही सभी 28 सीटें जीतने की बात कही हो, पर उनके नेताओं के मन में भी संशय तो था। 19 सीटों पर जीत ने उनको भी चौंकाया है। साँची, सुवासरा और हाटपिपलिया ऐसी ही सीटें रहीं, जिन्हें कांग्रेस के खाते में जोड़कर देखा जा रहा था, पर ये भाजपा ने जीत ली। ये नतीजे कांग्रेस के लिए चिंता बढ़ाने वाले हैं। उसे नए सिरे से अपनी कमजोरियों को टटोलना होगा। संगठनात्मक ढांचे को मजबूत करने की तैयारी करना होगी और सबसे बड़ी बात ये कि धरातल पर राजनीति करने की नीति बनाना होगी। अब हवा-हवाई राजनीति के दिन नहीं बचे, क्योंकि मतदाता सब जानता कौन कितने पानी में है।

- हेमंत पाल

  ये उपचुनाव सामान्य नहीं थे। असामान्य परिस्थिति और असामान्य राजनीतिक हालात में मध्यप्रदेश में ये उपचुनाव हुए। लेकिन, नतीजों ने स्पष्ट कर दिया कि मतदाता से बड़ा कोई नहीं होता। उसकी ख़ामोशी को उसकी सहमति समझने की गलती कतई न की जाए। उसका फैसला सर्वोपरि और हमेशा सही होता है। परिस्थितियां चाहे कोई भी हो, पार्टी और नेताओं की कमान मतदाता के अलावा किसी और के हाथ में नहीं होती। कांग्रेस को इन उपचुनाव के नतीजों ने कुछ ऐसे सबक दिए, जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। बशर्ते कि कांग्रेस उसे गंभीरता से समझे और अमल करे। कांग्रेस ने अपने पूरे चुनाव प्रचार में ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़ने वालों को अपशब्दों से नवाजा। गद्दार और धोखेबाज कहने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन, इस बात का ध्यान नहीं रखा कि जिसे वो गद्दार कह रही है, क्या मतदाता भी वही सोच रहा है। अब मतदाताओं के फैसले ने साबित कर दिया कि उनकी नजर में वे न तो गद्दार हैं और न धोखेबाज। बेहतर होता कि कांग्रेस ये फैसला मतदाताओं पर छोड़ती कि इन नेताओं ने जो किया वो गद्दारी थी या धोखेबाजी।
  कांग्रेस ने ये पूरा चुनाव नकारात्मक प्रचार तंत्र की रणनीति से लड़ा। सोशल मीडिया से लगाकर मंच तक के प्रचार में न तो भाषा की गरिमा का ध्यान रखा और न जमीन पर वास्तविक एकजुटता दिखाई, जिसकी जरूरत थी। ये कांग्रेस की कोई चुनावी रणनीति थी या अतिआत्मविश्वास ये समझ से परे है। जब सिंधिया ने अपने समर्थकों के साथ विद्रोह किया, तब पार्टी ने जो मानसिकता बनाई थी, उसमें उपचुनाव तक में कोई बदलाव नजर नहीं किया। कांग्रेस ने अपने चुनाव प्रचार में इतनी नकारात्मकता भर दी थी, कि सिंधिया समर्थक भाजपा उम्मीदवारों के प्रति मतदाताओं में सहानुभूति पैदा हो गई। इसी का नतीजा है कि भाजपा के उम्मीदवारों को अनुमान से ज्यादा वोट मिले। साँची, सांवेर, सुवासरा और हाटपीपलिया ऐसे ही इलाके हैं, जहाँ के भाजपा उम्मीदवारों ने अपने आपको नकारात्मकता से बचाए रखा और नतीजा सामने है।
  भाजपा के मुकाबले कांग्रेसी उम्मीदवारों का अपेक्षाकृत कमजोर होना भी हार का बड़ा कारण है। कमलनाथ ने सर्वे के जरिए उम्मीदवार तय करने का जो फार्मूला खोजा था, वो पूरी तरह फेल हो गया। ये सर्वे कब हुआ, कहाँ हुआ और किसने किया ये कोई नहीं समझ सका। सर्वे की आड़ में कई सीटों पर ऐसे चेहरों को उतारा गया, जिनमें जीतने का कोई माद्दा नहीं था। भाजपा से लौटे प्रेमचंद गुड्डू को साँवेर से चुनाव लड़ाना, बदनावर में टिकट बदलकर 72 साल के कमल पटेल को उम्मीदवार बनाना और करीब 9 दलबदलुओं को उम्मीदवार बनाना ऐसे ही फैसले थे, जो कांग्रेस की हार का कारण बने। देखा जाए तो ये कांग्रेस से ज्यादा कमलनाथ की मनमानी वाले फ़ैसलों की हार है। सही चेहरों को टिकट न दिया जाना और अपना आदमीवाद चलाने की रणनीति पूरी तरह फेल हो गई। कमलनाथ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे, पर उनका संगठन कहीं नजर नहीं आया। उम्मीदवार तय करने से लगाकर, रणनीति और चुनाव प्रचार तक में एक ही व्यक्ति नजर आता रहा, न कि पार्टी संगठन।
     कांग्रेस और भाजपा के संगठनों में सबसे बड़ा अंतर यही है कि भाजपा हमेशा चुनाव मोड पर रहती है और कांग्रेस को घोषणा के बाद ही चुनाव की याद आती है। कतिपय मतभेदों के बावजूद सभी चुनाव में भाजपा एक नजर आती है। जबकि, कांग्रेस न तो एकजुट है और न कभी नजर आई। पार्टी में हमेशा सिर-फुटव्वल का माहौल दिखाई देता रहता है। कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा भी बिखरा हुआ है। हर चुनाव के वक्त देखा गया है कि कांग्रेस अपने उम्मीदवार को टिकट देने के बाद उसे अकेला छोड़ देती है। यदि जीत गया तो उसे पार्टी की जीत माना जाता है, पर उसकी हार को व्यक्तिगत हार की तरह साबित करने की कोशिश होती है। टिकट देने के बाद कांग्रेस संगठन न तो स्थानीय नेताओं को जोड़ने की कोशिश करता है और न सेबोटेज करने वालों को संगठन का कोई भय रहता है। इसके विपरीत भाजपा छोटे-बड़े सभी चुनाव को प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाकर मैदान में उतरती है और उसकी तैयारी भी दिखाई देती है। प्रदेश कांग्रेस का बिखराव इस बार के उपचुनाव में भी साफ़ नजर आया। आठ महीने का लम्बा समय मिलने के बाद भी चुनाव के प्रति तैयारी और गंभीरता का भारी अभाव रहा। नेताओं ने सोशल मीडिया और अन्य मीडिया में बयानबाजी को ही अपनी जिम्मेदारी समझ लिया था, जिसकी हवा निकलते देर नहीं लगी।
  सबसे ज्यादा गौर करने वाली बात ये भी रही कि इन उपचुनाव में हवा-हवाई बातें करने वालों और ऊल-जुलूल दावे करने वालों को भी मतदाताओं ने बाहर का रास्ता दिखा दिया। फिर वो इमरती देवी हों, पारुल साहू हों या कमलनाथ। सिंधिया समर्थक भाजपा उम्मीदवारों में सबसे ज्यादा मुखरता इमरती देवी ने ही दिखाई। फिजूल के बयान और जीत के दावे उन पर भारी पड़ गए। कमलनाथ की ‘आइटम’ वाली टिप्पणी को भी इमरती देवी ने बेवजह तूल देकर चुनावी मुद्दा बना दिया था, जो निश्चित रूप से उनकी हार के कारणों में से एक है। सुरखी से पारूल साहू ने भी जीत के दावों में रियायत नहीं बरती। लेकिन, कई विरोधों के बावजूद वे गोविंद राजपूत की जीत को नहीं रोक सकी। कुछ यही स्थिति प्रेमचंद गुड्डू की भी थी, जिन्होंने तुलसी सिलावट पर कई बार गलतबयानी की, पर जवाब में सिलावट शांत रहे। विपरीत परिस्थितियां के बावजूद तुलसी सिलावट ने अभी तक के अपने चुनाव में सबसे ज्यादा वोटों से जीत हासिल की। ऐसे ही एक नेता साँची के डॉ. प्रभुराम चौधरी हैं, जिनका कोई बयान पूरे उपचुनाव में सुनाई या दिखाई नहीं दिया, पर वे 28 सीटों में सबसे ज्यादा वोटों से जीते। दरअसल, मतदाता की मानसिकता कभी नकारात्मकता पसंद नहीं करती। उसके पास अपनी बात कहने  का माध्यम नहीं होता, पर नतीजों के जरिए वो अपनी बात जरूर कह देता है। इसीलिए ये उपचुनाव कांग्रेस के लिए एक सबक हैं कि उसे अपना संगठन मजबूत करना होगा और आपसी गुटबाजी का इलाज करना होगा। हर नेता की अपनी कांग्रेस वाला फार्मूला अब तक चल गया, अब नहीं चलेगा।
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Saturday, November 7, 2020

परदे पर हमेशा ठंडी रही दिवाली!

- हेमंत पाल

  दीपावली ऐसा त्यौहार है, जिसे अंतरिक्ष से भी जगमगाते देखा जा सकता है। न केवल हिन्दू धर्म के लोग बल्कि हर धर्म मानने वालों के लिए दिवाली किसी न किसी रूप में खुशियाँ लेकर आता है। हिंदी सिनेमा के पर्दे पर भी दिवाली के पर्व का उजास अनछुआ नहीं रहा! कुछ फिल्मों के गीतों व दृश्यों में दिवाली काफी अहम रही! कभी कथानक के महत्वपूर्ण दृश्य दिवाली की पृष्ठभूमि पर फिल्माए गए, तो कभी गीतों में दिवाली का उजास, खुशियां और भव्यता स्पष्ट दिखाई दी। सिनेमा में जिन त्यौहारों को कभी खुशी गम प्रकट करने का माध्यम बनाया जाता है, उनमें होली, राखी और करवा चौथ के अलावा दिवाली सबसे उल्लेखनीय है।
    त्यौहारों और फिल्म की पटकथा का लम्बा साथ रहा है। ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने से परदे पर दिवाली का उजियारा छाता रहा। लेकिन, धीरे-धीरे परदे से दिवाली गायब होने लगी। फिल्मों का स्वरूप और दर्शकों का नजरिया बदलने से दिवाली के प्रसंगों को पहले की तरह शामिल नहीं किया जाने लगा! फिर भी साल, दो साल में एकाध फिल्म तो ऐसी आ ही जाती है, जिसमें दिवाली के दृश्य या गीत दिखाई या सुनाई पड़ते हैं। जबकि, गुज़रे जमाने की कई फिल्में दिवाली के आसपास ही घूमती रहती थी। जयंत देसाई के निर्देशन में 1940 में आई 'दिवाली' इसी परम्परा की फिल्म थी! इसके बाद 1955 में गजानन जागिरदार की 'घर घर में दिवाली' और इसके सालभर बाद 1956 आई में दीपक आशा की 'दिवाली की रात' में भी दिवाली को विषय वस्तु बनाकर फिल्म बनाई गई थी।
   इसके बाद फ़िल्मो में गाहे-बगाहे दिवाली के प्रसंगों को जोड़ा तो गया, लेकिन इस त्यौहार को केंद्र में रखकर फ़िल्में बनाना लगभग थम सा गया। 2001 में अमिताभ बच्चन की कंपनी 'एबीसीएल' ने आमिर खान और रानी मुखर्जी को लेकर 'हैप्पी दिवाली' बनाने का प्लान किया था! लेकिन, बाद में 'एबीसीएल' का दिवाला पिटने के कारण यह योजना टल गई। जिन फिल्मों में दिवाली के दृश्यों को प्रमुखता से शामिल किया गया, उनमें 1961 में आई राज कपूर, वैजयंती माला की 'नजराना' थी! इस फिल्म में 'मेले है चिरागों के रंगीन दीवाली है' गीत लता मंगेशकर ने गाया था। यह ब्लैक एंड व्हाइट दौर की खुशनुमा दीवाली का गीत है। इसकी खासियत है कि शुरू से अंत तक इसमें दीवाली की आतिशबाजी और भरपूर रोशनी नजर आती है। यह गीत आज भी देखने पर जीवंत नजर आता है। 1962 में आई 'हरियाली और रास्ता' में भी दिवाली के दृश्यों में नायक, नायिका का विरह दर्शाया गया था। वैजयंती माला दिलीप कुमार की 'पैगाम' और 'लीडर' में दिवाली के जरिए फिल्म के किरदारों को जोड़ने का प्रयास किया था। 1972 में 'अनुराग' में भी आपसी भरोसे और विश्वास को दिवाली से जोड़कर दर्शाया था। इसमें कैंसर से जूझ रहे बच्चे की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए पूरा मोहल्ला दिवाली मनाने में जुट जाता है।
   दीवाली के पटाखों के धमाकों के बीच गोलियों की आवाज दबाकर पूरे परिवार के खत्म करने का दृश्य अमिताभ को सितारा बनाने वाली फिल्म 'जंजीर' में प्रभावशाली ढंग से फिल्माया किया गया था। फिल्म का ये दृश्य नायक अमिताभ को सपनों में हमेशा दिखाई देता है। कमल हासन की 1998 में आई 'चाची 420' में कमल हसन की बेटी के दिवाली के दिन पटाखों से घायल होने का प्रभावशाली दृश्य था। आदित्य चोपड़ा की 'मोहब्बतें' (2000) में दिवाली काफी अहम् थी। करण जौहर की 2001 में आई मल्टी स्टारर सुपरहिट फिल्म 'कभी खुशी कभी गम' का टाइटल सांग असल में एक दीवाली गीत है। इसमें जया बच्चन दीवाली की पूजा करते हुए यह गाती है! पारंपरिक वेशभूषा और दमकती रोशनी से इस गीत की पृष्ठभूमि में दीवाली का भरपूर उजास नजर आता है।
   दिवाली को पृष्ठभूमि में रखते हुए तैयार किए कुछ गानों को भी अपार लोकप्रियता हांसिल हुई। इन गीतों में 'नजराना' का गीत 'एक वो भी दीवाली थी' 'शिर्डी के सांई बाबा' का गीत 'दीपावली मनाई सुहानी' के अलावा 'खजांची' का आई दीवाली आई, कैसी खुशहाली लाई, 'पैगाम' का दीवाली गीत 'कैसे मनाएं हम लाला दिवाली' और कुछ साल पहले गोविंदा अभिनीत फिल्म 'आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया' का गाना 'आई है दिवाली, सुनो जी घरवाली' दिवाली को केंद्र में ही रखकर रचे गए गीतों में थे। एसडी बर्मन के संगीत से सजी फिल्म 'जुगनू' फिल्म का  गीत 'छोटे नन्हें मुन्ने प्यारे प्यारे रे' अपने समय में बेहद लोकप्रिय हुआ था। इसके अलावा 'नमक हराम' का राजेश खन्ना और अमिताभ पर फिल्माया गीत 'दिये जलते हैं फूल खिलते हैं' अपने बेहतरीन फिल्मांकन के लिए दर्शकों को आज भी याद है।
    कुछ समय से सिनेमा से दिवाली बिल्कुल ही गायब हो गई। लगता है दिवाली के दृश्यों और गानों से बॉलीवुड लगभग किनारा कर चुका है। इसलिए कि अब कथानक की विषय वस्तु में काफी बदलाव आ गया। सिनेमा के परदे पर त्यौहारों का मनाया जाना, बिकाऊ पटकथा की मांग पर निर्भर हो गया! फिल्मकार नई शैली के साथ प्रयोग करके कुछ नया करना चाहते हैं। वे बॉलीवुड के वैश्विक पटल पर पहुंचने के साथ वैश्विक सिनेमा के प्रशंसकों को लुभाने वाले विषयों पर फिल्म बनाने की कोशिश में लगे रहते हैं। हर त्यौहार का बॉलीवुड कनेक्शन होता है। हमारी परंपराओं, व्रत-त्यौहारों को गीतों या फिल्मों के कथानक में पिरोकर दिखाया जाता रहा है। होली तो बॉलीवुड का सदाबहार त्यौहार है, लेकिन दीवाली कभी परदे का पसंदीदा त्यौहार नहीं बन पाया। दिवाली पर प्रदर्शित फिल्मों की सफलता लगभग सुनिश्चित मानी जाती है! किंतु, हाल के सालों में फिल्मों में ये त्यौहार लगभग भुला दिया गया। अभी तो बड़े परदे पर कोरोना का कहर जारी है! इसे देखते हुए इस साल तो बॉलीवुड की दीवाली पर सिनेमाघर के अंदर का अंधियारा ही हावी रहेगा! जो फिल्में इस साल दीपावली को प्रदर्शित करने के लिए तैयार की गई थी, उन्हें आगे बढाया जा रहा है। इस लिहाज से बॉलीवुड के लिए यह दीपावली सूनी और काली ही रहेगी।
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Monday, November 2, 2020

जनता की अदालत में होगा बगावत का फैसला!  

   मध्यप्रदेश के सबसे बड़े राजनीतिक उलटफेर के बाद अब उस फैसले पर जनता की मुहर लगने की घड़ी आ गई! इस सत्तापलट घटना को जनता ने किस नजर से देखा, अब इसका नतीजा आना है! 28 विधानसभा क्षेत्र के मतदाताओं के सामने उम्मीदवारों के प्रश्नपत्र पहुँचने के बाद वे फेल या पास का नतीजा सुनाएंगे। वे बताएँगे कि विधायकों के दलबदल करके सरकार गिराने के कारनामे को उन्होंने सही माना या गलत! ये सिर्फ विधायकों की नहीं, सरकार की भी अग्निपरीक्षा है! मध्यप्रदेश के ये उपचुनाव पार्टियों की रणनीति का भी निर्धारण करेंगे कि भविष्य में सरकार गिराने की ऐसी कोशिशें आगे की जाना क्या सही होगा! अभी तक ऐसे कई प्रयास हो चुके हैं, जब दूसरी पार्टियों के विधायकों को भाजपा ने तोड़कर अपनी सरकार बनाई है। कभी चुनाव से पहले दलबदलुओं को अपनी पार्टी में शामिल किया गया तो कभी चुनाव के बाद एकमुश्त विद्रोह करवाकर सत्ता पर कब्ज़ा किया। कर्नाटक के बाद मध्यप्रदेश में वही प्रयोग दोहराया गया! लेकिन, अब इस फैसले का जनता की अदालत फैसला होना है!   
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हेमंत पाल

  र्नाटक के बाद देश राजनीतिक इतिहास में संभवतः ये लगातार दूसरा मौका है, जब किसी चलती सरकार हुई सरकार को उसके ही विधायकों ने पटरी से उतारकर दूसरी पार्टी को सरकार बनाने में सहयोग किया हो! कभी जो हालात कर्नाटक में बने थे, वही सब मध्यप्रदेश में हुआ! इन दोनों राज्यों में चलती सरकारों को उसके ही विद्रोही विधायकों के कारण कुर्सी छोड़नी पड़ी! कर्नाटक में विद्रोहियों की संख्या 15 थी, मध्यप्रदेश में 28 में से 25 चेहरे ऐसे ही हैं। वहाँ 15 सीटों के लिए हुए उपचुनाव में जेडीएस और कांग्रेस से भाजपा में आए 13 में से 11 विद्रोहियों ने जीत हांसिल की थी। यही कारण था कि कर्नाटक में येदुरप्पा सरकार को पूर्ण बहुमत मिल गया। वहां भी 17 विधायकों ने पद छोड़कर सरकार को अल्पमत में ला दिया था। मध्यप्रदेश की कहानी भी बहुत कुछ इससे मिलती-जुलती है। फर्क सिर्फ इतना है कि मध्यप्रदेश में 22 विद्रोहियों के गुट का नेतृत्व कांग्रेस के ही एक बड़े नेता ने किया! इसके बाद भाजपा ने सरकार बनाकर कांग्रेस के तीन और विधायकों को इस्तीफ़ा देने के लिए राजी कर लिया। इससे विद्रोहियों की संख्या 22 से बढ़कर 25 हो गई! तीन सीटें विधायकों के निधन से खाली हो गई और ये आंकड़ा 28 तक पहुँच गया। अब इन 28 क्षेत्रों के मतदाता इन विधायकों के विद्रोह की उत्तर पुस्तिका जांचकर उसे सही या गलत बताने का फैसला करेंगे!  
   भाजपा ने सरकार बनाने के लिए दलबदल करवाया तो कुछ हद तक कांग्रेस ने उपचुनाव जीतने के लिए 9 दलबदलुओं को टिकट दिए। इसलिए सिर्फ भाजपा पर ये लांछन नहीं है कि उसने दलबदलुओं को मैदान में उतारा! कांग्रेस ने भाजपा और समाजवादी पार्टी से कांग्रेस में आए नेताओं को उम्मीदवार बनाया है। ऐसी स्थिति में 28 में से 9 विधानसभा क्षेत्रों में जिस भी उम्मीदवार की जीत दर्ज होगी, वो दरअसल दलबदलू ही होगा! इन 9 सीटों पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ही दल बदलकर पार्टी में आए लोगों को टिकट दिए! ये सीटें हैं सुमावली, अंबाह, ग्वालियर (पूर्व), डबरा, भांडेर, करैरा, बमोरी, सुरखी और सांवेर। भाजपा ने कांग्रेस से बगावत करके आए 25 नेताओं को टिकट दिया, तो कांग्रेस ने भाजपा छोड़कर आए 6, बसपा से आए 2 और बहुजन संघर्ष दल के एक नेता को कांग्रेस का टिकट दिया। ऐसी स्थिति में इन 9 सीटों पर जो भी जीता वो विधायक दलबदलू ही होगा! 
   देश के राज्यों के चुनाव के पन्ने पलटे जाएं तो 2016 से 2018 के शुरू में जितने भी राज्यों में चुना्व हुए, कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए नेताओं की जीत का आंकड़ा बहुत अच्छा रहा! ज्यादातर को चुनाव में जीत मिली थी। 2016 में हुए असम विधानसभा के चुनाव और 2018 के त्रिपुरा चुनाव तक में भाजपार्टी ने 47 कांग्रेसी विद्रोहियों को अपने टिकट पर चुनाव लड़ाया जिनमें से 36 जीत गए। असम में चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस छोड़कर आए 7 विद्रोहियों को अपना उम्मीदवार बनाया और वे सभी चुनाव जीत भी गए। जीतने वालों में हिमांता बिस्वा सरमा भी थे। 2017 में उत्तर प्रदेश और गोआ के चुनाव में भाजपा ने जितने भी कांग्रेसी बागियों को चुनाव लड़ाया, सभी ने झंडे गाड़े! उत्तराखंड, गुजरात और मणिपुर में भी बागियों की जीत का औसत 28% से 87% के बीच रहा। त्रिपुरा में भाजपा में आए कांग्रेस के 10 विद्रोहियों ने चुनाव लड़ा और 9 जीत गए। दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी भाजपा ने दूसरी पार्टियों से आए 5 विद्रोहियों को टिकट दिया! लेकिन, इनमें सिर्फ एक को ही जीत मिली। 
     महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में भी भाजपा ने 20 दलबदलुओं को अपने टिकट पर चुनाव लड़वाया था, उनमें 15 जीतने में सफल थे। महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस के 11, एनसीपी के 6 और शिवसेना, आएसपीएस और आरपीआई (ए) के एक-एक नेता भाजपा में आए थे। लेकिन, बदकिस्मती है कि महाराष्ट्र में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी होकर भी सरकार बनाने में नाकामयाब रही! झारखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा ने दूसरी पार्टियों के 17 लोगों को चुनाव में उम्मीदवार बनाया था। इनमें से 7 ही चुनाव जीते! भाजपा में आने वालों में 11 'झारखंड विकास मोर्चा' के लोग थे! इस पार्टी का बाद में भाजपा में ही विलय हो गया। कांग्रेस के 3 और अन्य पार्टियों के भी 3 नेता भाजपा में आए थे। महाराष्ट्र की तरह झारखंड में भी भाजपा को अतिआत्मविश्वास ले डूबा और वो सत्ता से बाहर हो गई! हरियाणा विधानसभा चुनाव से पहले भी भाजपा ने अपने दरवाजे खोल दिए थे और 14 नेताओं को अपने बैनर पर चुनाव लड़वाया! इन 14 दलबदलुओं में आईएनएलडी के 9, कांग्रेस के 2 और हरियाणा जनहित कांग्रेस (भजनलाल) और शिरोमणी अकाली दल के एक-एक नेता थे। लेकिन, इनमें से 5 ही चुनाव जीते। हरियाणा में भाजपा की सरकार तो बन गई, पर ताकत घट गई!
  भारतीय राजनीति के इतिहास का पहला ज्ञात दलबदल संभवतः आम चुनावों के बाद 1952 में तत्कालीन राज्य मद्रास में हुआ था। वहां किसी पार्टी को सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं मिला था। 152 सीट कांग्रेस को और दूसरी पार्टियों को 223 सीटें मिली थीं। तब गठबंधन करके 'किसान मजदूर प्रजा पार्टी' और 'भारतीय साम्यवादी दल' ने सरकार बनाने का दावा पेश किया था! लेकिन, राज्यपाल ने देश के पूर्व गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी को सरकार बनाने के लिए बुलाया! वे सेवानिवृत्ति के बाद आराम का जीवन जी रहे थे। वे उस समय विधानसभा के सदस्य भी नहीं थे। इसके बाद जोड़-तोड़ हुई और 16 विधायक विपक्ष से कांग्रेस में आ गए और राजगोपालाचारी की सरकार बन गई। लेकिन, ये सब इतिहास बन गया। ताजा बगावत को यदि जनता की अदालत ने सही ठहराया और विद्रोहियों को जीत हांसिल हुई तो फिर विधानसभाओं में बहुमत के लिए फिर ऐसे ही हथकंडे इस्तेमाल होने लगेंगे!
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Saturday, October 31, 2020

नफरत की राख में दबी मोहब्बत के दो दशक

- हेमंत पाल

  हर साल सैकड़ों फ़िल्में आती हैं और कुछ दिन बाद अपना जलवा दिखाकर परदे से उतर जाती हैं! बाद में कोई उन्हें याद भी नहीं करता! पर, हिंदी फिल्म इतिहास के सौ से ज्यादा सालों में ऐसी फ़िल्में भी हैं, जो मील के पत्थर की तरह यादों की जमीन पर टिकी हुई हैं! मुगले-आजम, मदर इंडिया, शोले, दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे और 'मोहब्बतें' को ऐसी ही फिल्मों में गिना जा सकता है, जो अपने अनोखे कथानक, अदाकारी, निर्देशन और संगीत के लिए कालजयी बन गईं! सिनेमा की दुनिया में ये फ़िल्में सफलता का ऐसा पैमाना बन गईं, जिनसे दूसरी फिल्मों का मूल्यांकन किया जाता है। रोमांटिक कहानी, मधुर संगीत और सशक्त अभिनय के मामले में 'मोहब्बतें' ऐसी ही फिल्म थी। हाल ही में इस फिल्म ने अपनी रिलीज के दो दशक पूरे किए हैं। ये कई मायनों में याद की जाने वाली फिल्म भी है।
  अभी तक प्रेम कहानियों पर कई फ़िल्में बनाई गई! बल्कि, ये कहना ज्यादा बेहतर होगा कि सबसे ज्यादा फ़िल्में ही ऐसी कहानियों पर बनी, जो प्रेम के इर्द-गिर्द घूमती रहीं! ‘मोहब्बतें’ का कथानक भी युवा प्रेम और एक सख्त प्राचार्य के प्रेम के प्रति नफरत पर केंद्रित था। इस फिल्म को खास तौर पर दो बातों के लिए याद किया जाता है! एक, अमिताभ बच्चन का नारायण शंकर वाला किरदार और दूसरा एक साथ छह नए कलाकारों का परदे पर आना। अमिताभ बच्चन खुद भी अपने किरदार को कई मायनों में स्पेशल मानते हैं। उन्होंने फिल्म को याद करते हुए सोशल मीडिया पर लिखा भी है 'परंपरा, प्रतिष्ठा, अनुशासन' मेरे लिए कई वजहों से खास है। इस खूबसूरत प्रेम कहानी और इमोशन्स के रोलर कोस्टर के 20 साल। आपके द्वारा जाहिर किए गए प्यार के प्रति तहे दिल से आभारी हूं।' 'मोहब्बतें' ही वो पहली फिल्म थी, जिसमें अमिताभ ने हीरो के किरदार को तिलांजलि देते हुए चरित्र भूमिकाओं की शुरुआत की थी! इस फिल्म से उदय चोपड़ा, शमिता शेट्टी, प्रीति झंगियानी और किम शर्मा का एक्टिंग का करियर शुरू हुआ था! जबकि, जिमी शेरगिल और जुगल हंसराज के अभिनय को ऊंचाई मिली।         अमिताभ 6 साल तक फिल्मों से दूर रहे थे। वापसी के बाद उन्होंने मृत्युदाता, बड़े मियां छोटे मियां और 'कोहराम' जैसी दोयम दर्जे की फ़िल्में की! पर, उन्हें वो पहचान नहीं मिली, जो उन्हें 80 और 90 के दशक में जंजीर, दीवार, शोले और 'सिलसिला' ने दी थी। लेकिन, 27 अक्टूबर 2000 को रिलीज 'मोहब्बतें' के बाद उनके करियर को नया जीवन मिला। इसमें अमिताभ और शाहरुख खान पहली बार साथ आए थे। फिल्म में अमिताभ ने 'गुरुकुल' नाम के कॉलेज के सख्त प्राचार्य नारायण शंकर की भूमिका निभाई, जिसे काफी पसंद किया गया। नारायण शंकर को सख्त मिजाज प्राचार्य बताया गया, जो परंपरा और अनुशासन पर जोर देकर अपने छात्रों को पढ़ाना अच्छा मानते हैं। उन्होंने अपने छात्रों को किसी भी तरह के प्रेम से भी मना कर रखा था। जो भी ऐसा करता पाया जाता, उसे निष्कासित कर दिया जाता है। उनकी इस सख्ती के पीछे भी एक कहानी छुपी होती है। 
    फिल्म में बहुत कुछ ऐसा था, जो यादगार रहा। फिल्म के शमिता शेट्टी और किम शर्मा के रोल वास्तव में करिश्मा कपूर और काजोल को सोचकर लिखे गए थे। लेकिन, दोनों ने मना कर दिया था। अमिताभ के अपोजिट एक भूमिका श्रीदेवी के लिए भी लिखी गई थी। लेकिन, श्रीदेवी के इंकार के बाद इसे कहानी से ही निकाल दिया गया। मिथुन चक्रवर्ती भी इस फिल्म में छोटा सा रोल करने वाले थे। उनकी भूमिका शेफाली शाह के पति के रूप में थी, पर इस भूमिका के चलते फिल्म की लंबाई ज्यादा बढ़ रही थी, तो उसे भी काट दिया गया। उदय चोपड़ा अपने अपोजिट रिंकी खन्ना को लेना चाहते थे। लेकिन, आदित्य चोपड़ा का कहना था कि उन्हें किसी नई एक्ट्रेस के साथ लांच किया जाना ही ठीक होगा। जितना इस फिल्म को पसंद किया जाता है, उतना ही इसके संगीत को भी लोगों ने पसंद किया था। जतिन-ललित के संगीत में फिल्म में करीब 9 गाने थे। लता मंगेशकर और उदित नारायण ने इन्हें आवाज दी और फिल्म के सभी गाने पसंद किए गए! इसका होली गीत तो आज भी अकसर होली पर सुनाई दे जाता है।  
  'मोहब्बतें' से पहले अमिताभ बच्चन अपने करियर को लेकर काफी मुश्किलों का सामना कर रहे थे। उनका प्रोडक्शन हाउस 'एबीसीएल' भी घाटे में चला गया था, जिससे न सिर्फ उनकी इमेज खराब हुई बल्कि उन्हें आर्थिक नुकसान का भी सामना करना पड़ा! यही वो समय था, जब यश चोपड़ा ने अमिताभ को अपने प्रोडक्शन की आने वाली इस फिल्म के बारे में बताया और वे राजी भी हो गए! 'मोहब्बतें' से अमिताभ ने अपनी 'हीरो' वाली इमेज को छोड़ा और एक ऐसे उम्रदराज व्यक्ति का रोल निभाया, जिसे मोहब्बत से नफरत थी। दो पीढ़ियों के अंतर्द्वंद में फँसी ये फिल्म आलोचनात्मक और व्यावसायिक दोनों मोर्चों पर सफल रही थी। लेकिन, आज फिल्म को एक सफल प्रेम कहानी के रूप में याद किया जाता है।    
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Tuesday, October 27, 2020

'महाराज' किस बात पर इतना खफा!

   मध्यप्रदेश में हो रहे उपचुनाव के केंद्र बिंदू ज्योतिरादित्य सिंधिया इन दिनों बेहद गुस्से में हैं। इतना गुस्सा हैं कि देखने वाले भी आश्चर्य कर रहे हैं। ये पहली बार हो रहा कि इस भद्र राजनेता को इतना गुस्से में देखा गया! सामान्यतः वे सहजता से भाषण देते हैं! चुनाव प्रचार के मंच पर वैसे उनकी भाव भंगिमाएं जरूर बदलती देखी गईं! उनके भाषण के क्लाइमेक्स तक पहुँचते-पहुँचते उनकी आवाज अकसर तेज हो जाती है! ये हमेशा होता है, लेकिन इन दिनों वे कुछ ज्यादा ही उत्तेजना में हैं। बोलते-बोलते उनका गुस्सा इतना उग्र हो जाता है कि वे आपा खो रहे हैं! ये सवाल पूछा जाने लगा है कि क्या आखिर उन्हें इतना गुस्सा क्यों आ रहा! छाती ठोंकने वाला उनका ये अंदाज क्या दर्शा रहा है! वास्तव में 'महाराज' की ये उग्रता कांग्रेस के खिलाफ है या भाजपा के! कांग्रेस पर उनका गुस्सा स्वाभाविक है, पर यदि ये भाजपा पर नाराजी है, तो उसके भी कारण बताए जा रहे हैं।   
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- हेमंत पाल
 
   सोशल मीडिया पर इन दिनों उपचुनाव के कई रंग नजर आ रहे हैं! इसी माहौल में लोगों को ज्योतिरादित्य सिंधिया के कुछ आक्रामक वीडियो दिखाई दिए! मंच पर भाषण देते सिंधिया उर्फ़ 'महाराज' आपा खोते नजर आ रहे हैं। कभी वे अपनी छाती जोर-जोर से ठोंकते हैं तो कभी पोडियम पर मुक्के मारते हैं। ऐसा करते समय उनकी आँखे बड़ी हो जाती है। आवाज में जबरदस्त तेजी आ जाती है। उनकी आवाज इतनी तेज होती है, कि चुनाव सभा की भीड़ में भी सन्नाटा छा जाता है। लोगों को पहली बार उनका ये गुस्सा दिखाई दिया। डबरा के छिमक गाँव में एक चुनावी सभा में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ की इमरती देवी पर की गई 'आइटम' वाली टिप्पणी के बाद तो ज्योतिरादित्य सिंधिया बुरी तरह बिफर गए! उन्होंने मंच से इमरती देवी के अपमान को बदला लेने और सबक सिखाने की चुनौती मतदाताओं को बिल्कुल फ़िल्मी अंदाज में दी। सिंधिया ने अपना जो तेवर दिखाया, वो उनका नया रूप था। इमरती देवी भी सिंधिया की आत्मीयता से इतनी भाव-विभोर हो गई कि आँसू पोंछने लगी। जब इमरती देवी मंच पर सुबकने लगी तो सिंधिया ने उन्हें संभालते और गले लगाते नजर आए! बोले कि डबरा का ये चुनाव इमरती देवी नहीं मैं लड़ रहा हूं! लोगों को 'महाराज' पहले कभी चुनावी मंच पर इतने गुस्से में नहीं दिखे।
     इसके बाद ग्वालियर (पूर्व) सीट पर भाजपा उम्मीदवार और अपनी बगावती टीम के सदस्य मुन्नालाल गोयल के समर्थन में हुई सभा में भी उनका ऐसा ही आक्रामक रूप लोगों ने देखा। यहां भी कांग्रेस और कमलनाथ सरकार पर हमला बोलते हुए उन्होंने अपने भाषण में आँखे चौड़ी की, छाती ठोंकी और कमलनाथ और कांग्रेस को धमकाया! इस जबरदस्त परफॉमेंस वाले दृश्यों ने मतदाताओं को कितना प्रभावित किया, ये तो बाद में पता चलेगा! लेकिन, सिंधिया के इस गुस्से के और भी मंतव्य ढूंढे जा रहे हैं। सिंधिया के ऐसे तेवर ने उपचुनाव के प्रचार में आखिरी हफ्ते में सियासी पारा काफी ऊपर चढ़ा दिया। गुस्से के पीछे के कारण ढूंढने और 'महाराज' की राजनीति को नजदीक से समझने वालों का मानना है, कि चुनावी भाषणों की बातों से अमूमन वे इतना नहीं बिफरते! इसके पीछे कोई और कारण है, जो उन्होंने आपा खोया! यह भी हो सकता है भाजपा के किसी व्यवहार ने उन्हें इस गुस्से के लिए मजबूर किया हो! 
    कांग्रेस के नेता और ग्वालियर-चंबल इलाके के मीडिया प्रभारी केके मिश्रा का कहना है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया का ये गुस्सा इमरती देवी पर की गई कथित टिप्पणी को लेकर नहीं है। बल्कि वे भाजपा के पोस्टरों, होर्डिग्स और प्रचार वाहनों से खुद के फोटो गायब होने को लेकर ज्यादा खफा हैं। भाजपा ने जिस तरह उन्हें अकेला छोड़ दिया, वे उसे सहन नहीं कर पा रहे! ये बात गलत भी नहीं है। लोगों ने इस बात को महसूस किया कि प्रचार के इस दौर में ज्योतिरादित्य अकेले पड़ गए। कई चुनाव सभाएं उन्हें अकेले ही करना पड़ रही है। संभव है, ये गुस्सा ऐसे ही कारणों की कोख से जन्मा हो! लेकिन, मंच पर डॉयलॉग के साथ सिंधिया का कभी छाती और कभी पोडियम ठोंकना मतदाताओं को आकर्षित कर रहा है! यही कारण हैं कि उनके वीडियो हर सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं। वे यह कहना भी नहीं भूलते कि मुझमें बड़े महाराज का खून है, अगर कोई किसानों, महिलाओं और नौजवानों के साथ गद्दारी करेगा, तो सिंधिया उसे मैदान में आकर धूल चटाएगा। निश्चित रूप से उनकी ये टिप्पणी कमलनाथ की तरफ है। 
    ग्वालियर-चंबल इलाके की 16 सीटों पर हो रहे चुनाव प्रचार में मतदाता पहली बार ज्योतिरादित्य सिंधिया का ये जोशीला अंदाज और नई शैली का भाषण देख और सुन रहे हैं। ख़ास बात ये भी है कि वे कई मंचों से भाजपा को छोड़ सिंधिया घराने से लोगों के पुराने संबंधों का हवाला देते हुए अपने समर्थक उम्मीदवार को वोट देने की अपील कर रहे हैं। वे चिल्ला-चिल्लाकर यह जताना नहीं भूल रहे कि ये भाजपा और कांग्रेस उम्मीदवार के बीच का चुनाव नहीं, बल्कि मेरा चुनाव है। ग्वालियर, बमोरी, दिमनी, भांडेर और डबरा की चुनावी सभाओं में उनका आक्रामक रूप ज्यादा सामने आया। वे मौजूद लोगों से ये हुंकारा भराना भी नहीं भूलते, कि ग्वालियर-चंबल इलाके में सिंधिया परिवार का झंडा हमेशा बुलंद रहेगा! बार-बार सिंधिया परिवार का जिक्र शायद भाजपा की उपेक्षा के कारण ही किया जा रहा है।
   इस उपचुनाव पर भाजपा की शिवराज सरकार के अलावा ज्योतिरादित्य सिंधिया का राजनीतिक करियर और उनके घराने का दबदबा भी दांव पर लगा है। उनके साथ विधायकी और मंत्री पद छोड़कर आए लोगों के लिए यह उपचुनाव प्रतिष्ठा का सवाल बन गया। उन्होंने इमरती देवी की चुनाव सभा में जो बोला उसे बमोरी की सभा में भी दोहराया। सिंधिया कई जगह बोले कि उम्मीदवार और पार्टी को नहीं, सिर्फ मुझे देखें। सिंधिया के भाषणों के शब्द, तेवर और निशाना लगभग एक जैसा है। वे सिंधिया परिवार के मान-सम्मान के साथ अपना झंडा बुलंद रखने की भी अपील करते दिखाई दे रहे हैं। उनकी गुस्सैल भाषण शैली अच्छी-खासी तालियां भी बटोर रही हैं। वे कभी तीखी भाषा बोलते हैं, तो कभी मसखरी करते हुए कमलनाथ की खिल्ली उड़ाने का मौका भी नहीं चूकते! मंच से कई बार इशारों और मौन से भी वे बहुत कुछ कह जाते हैं। उन्होंने कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की 'बड़ा भाई-छोटा भाई' की जोड़ी पर भी टिप्पणी की। 
   ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में सिंधिया परिवार के दबदबे से इंकार नहीं किया जा सकता! पहले के चुनाव में कभी इस परिवार पर इतनी ज्यादा उंगलिया नहीं उठी जितनी इस बार! सिंधिया ने जब प्रचार शुरू किया तो उन्होंने देखा कि लोग उनसे नाराज हैं। अपने परिवार के प्रभाव वाले इलाकों में सिंधिया को कई जगह 'गद्दार वापस जाओ' और काले झंडों का भी सामना करना पड़ा था। दरअसल, सिंधिया का मिजाज ऐसा नहीं है, कि वे अपना ऐसा खुला विरोध सहन कर सकें! पर, जब ऐसा होता दिखाई दिया तो भाजपा को भी चिंता हुई! पार्टी को अंदाजा नहीं था कि जिस इलाके में सिंधिया परिवार की तूती बोलती थी, वहां जनता ख़म ठोंककर विरोध में खड़ी हो जाएगी! संभवतः इसके बाद पार्टी ने अपनी रणनीति बदली और प्रचार तंत्र का तरीका बदला! उन्हें स्टार कैंपेनर की लिस्ट में 10वां नंबर दिया गया। इतने प्रतिष्ठा वाले चुनाव में प्रचार सामग्री से 'महाराज' के फोटो गायब होना, उनके और समर्थकों के लिए एक बड़ा इशारा माना जा सकता है। 
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Friday, October 23, 2020

बिना ब्रेक की फिल्मों में बंधे दर्शक!

हेमंत पाल

    बॉलीवुड में हर साल सैकड़ों फ़िल्में बनती हैं। सबके कथानक तो अलग-अलग होते हैं, पर इनके फॉर्मूले में कोई अंतर नहीं होता। एक कहानी, कुछ गाने, बीच में इंटरवल और फिल्म का अंत सकारात्मक! इससे अलग कुछ नहीं होता! लेकिन, जिस फ़िल्मकार ने इससे अलग हटकर कुछ किया, वो फिल्म इतिहास में दर्ज हो गया! बिना गानों वाली फिल्म, एक पात्रीय अभिनय वाली फिल्म और एक रात की कहानी पर फिल्म बनाने जैसे प्रयोगों के अलावा बिना इंटरवल वाली फिल्म बनाना भी ऐसा ही अनोखा प्रयोग है। सौ सालों से ज्यादा के हिंदी फिल्म इतिहास में ऐसी फ़िल्में बहुत कम बनी, जिसमें कोई इंटरवल नहीं था! ऐसा करने का सिर्फ यही मकसद था कि दर्शकों को फिल्म के कथानक के रोमांच से बांधकर रखना! इस प्रयोग को जिस भी फिल्म में अपनाया गया, उस फिल्म में इस बात का भी ध्यान रखा गया कि फिल्म की लम्बाई ज्यादा न हो! क्योंकि, ढाई-तीन घंटे तक दर्शकों को किसी सनसनी या रोमाँच में बांधकर नहीं रखा जा सकता! याद किया जाए, तो सिर्फ तीन ही फ़िल्में याद आती है, जिनमें दर्शकों को आधी फिल्म के बाद सीट से उठने का मौका नहीं दिया गया। लेकिन, इस प्रयोग में सफल होने वाली राजेश खन्ना की पहली फिल्म थी।     
   संभवतः यश चोपड़ा पहले ऐसे फ़िल्मकार थे, जिन्होंने बिना इंटरवल के 'इत्तेफ़ाक' (1969) बनाने का साहस किया था। इसके पीछे उनका सोच था कि दर्शकों को फिल्म की कहानी इतना बांध ले कि वे सीट से न उठें! वास्तव में ऐसा हुआ भी था। ये एक ऐसी मर्डर मिस्ट्री थी, जिसमें न तो इंटरवल था और न कोई गाना! फिल्म का कथानक अंग्रेजी नाटक ‘साइनपोस्ट टु मर्डर’ से प्रेरित था। इस फिल्म में राजेश खन्ना ने एक पेंटर की भूमिका निभाई थी, जिस पर अपनी पत्नी अरूणा ईरानी को मारने का इल्जाम लगता है। पुलिस से बचने के लिए राजेश खन्ना जिस घर में घुसते हैं, उस घर की मालकिन (नंदा) ने भी अपने पति की हत्या करके उसकी लाश को घर में छुपाया था! फिल्म का रोमांच ऐसा था कि दर्शकों को इंटरवल न होने का अहसास ही नहीं हुआ! यश चोपड़ा ने ये फिल्म एक गुजराती नाटक 'धूमस' देखकर बनाई थी, जो अंग्रेजी नाटक का रूपांतरण था! ये फिल्म मात्र 20 दिन में बनी थी और पसंद भी की गई थी। 
  पहली फिल्म के बरसों बाद 2010 में बिना ब्रेक का फार्मूला आमिर खान ने अपनी फिल्म 'धोबी घाट' में अपनाया! सीमित बजट और लीक से हटकर बनी इस फिल्म को आमिर की पत्नी किरण राव ने डायरेक्ट किया था। इसमें आमिर खान के अलावा कोई नामचीन चेहरा नहीं था। लेकिन, फिल्म का कथानक इतना सशक्त था कि दर्शक डेढ़ घंटा बंधकर रहे! ये फिल्म चार अलग-अलग पृष्ठभूमि से आए किरदारों की कहानी है, जो कुछ नया करना चाहते हैं। ये चारों एक-दूसरे से अलग हैं! फिर भी आपस में जुड़े हैं। वे मुंबई की बुराई करते हैं, लेकिन इससे दूर भी नहीं रह पाते! उनके दर्द के पीछे उनका अतीत छुपा है। वे बहुत कुछ करना चाहते हैं! पर, मन मसोसकर रह जाते हैं! मान लेते हैं कि यही उनकी जिंदगी और नियति है! मोनिका डोगरा जो बैंकर लेकिन उसे फोटोग्राफी पसंद है। आमिर खान ने अपना जीवन चित्रकारी को समर्पित कर रखा है! किंतु, उसका जीवन कला और सोच के बीच बंटा हुआ है। कृति मल्होत्रा ने ऐसा किरदार निभाया, जो अपने भाई से दूर होकर दुखी है! अंदर से दुखी होकर भी वो सबके सामने खुश होने नाटक करती है! चौथा किरदार प्रतीक बब्बर है, जो धोबी है, लेकिन उसे हीरो बनने का जुनून है। वो सलमान खान को अपना फेवरेट मंटा है। लेकिन, यह नहीं जानता कि जीवन में आसानी से कुछ नहीं मिलता!
   2016 में आई 'ट्रैप्ड' भी ऐसी ही फिल्म थी, जिसमें इंटरवल नहीं था। फिल्म के नाम से ही स्पष्ट है कि इसकी कहानी किसी पात्र के कहीं फंसे होने पर केंद्रित होगी। मुंबई के एक खाली पड़े अपार्टमेंट में राजकुमार राव फंस जाता है। वहाँ कोई सुविधा नहीं होती। उसके पास न तो खाने को कुछ होता है, न बिजली होती है न पानी! वहां कॉकरोच और चूहों की भरमार होती है। अपने फंसे होने की सूचना देने के लिए राजकुमार राव क्या-क्या हथकंडे करता है, यही इस फिल्म का रोमांच था। मुंबई जैसे शहर में कोई कहीं फंस जाए और उसे निकलने में इतनी जद्दोजहद करना पड़े, ये आसानी से हज़म होने वाली बात नहीं है! फिल्म में हल्की सी झलक हॉलीवुड की फिल्मों जैसी जरूर मिली थी, पर फिल्म ठेठ मुम्बइया स्टाइल की थी। फंसे होने की पीड़ा हो राजकुमार राव ने बखूबी निभाया था, पर कथानक की कमजोरी फिल्म को बचा नहीं सकी थी। 
   इन तीन फिल्मों के अलावा किसी ने इस तरह का प्रयोग किया हो, ये याद नहीं आता! पर, राजकपूर ने दो ऐसी फ़िल्में बनाई जिनमें दो इंटरवल थे। पहले बनाई 'संगम' (1964) फिर बनाई 'मेरा नाम जोकर' (1970) जैसी फिल्म भी बनाई जिसकी लम्बाई इतनी थी कि उसमें दो इंटरवल करना पड़े थे। इस फेहरिस्त में भीष्म साहनी के उपन्यास पर बनी तमस, जेपी दत्ता की 'एलओसी' और राजश्री की 'मैंने प्यार किया' के अलावा 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' का नाम लिया जा सकता है। विवादस्पद कहानी होने के कारण 'तमस' को टीवी पर सीरियल की तरह दिखाया गया। 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' के दो हिस्से करना पड़े और फिल्म की लम्बाई कम करना पड़ी।           
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Tuesday, October 20, 2020

संस्कारहीन चुनावी राजनीति की अमर्यादित भाषा शैली!

  मध्यप्रदेश की 28 विधानसभा सीटों के उप चुनाव का राजनीतिक घटनाक्रम देखकर लगता है कि अब राजनीति पूरी तरह दिशाहीन होकर भटक गई! प्रचार में कोई भी पार्टी अपनी उपलब्धि या भविष्य की योजनाओं की बात नहीं कर रही! सारा जोर एक-दूसरे पर लांछन लगाने और अमर्यादित भाषा बोलने तक सीमित हो गया! इसमें कोई भी पार्टी पीछे नहीं है। कीचड़ उछालने का अंतहीन खेल शुरू हो गया। कटाक्ष वाली घटिया भाषा को चुनाव प्रचार समझ लिया गया! खुद को ईमानदार और दूसरे को चोर कहने में कोई संकोच नहीं हो रहा! वास्तव में ये स्तरीय राजनीति की भाषा नहीं है! अभी तक मध्यप्रदेश इससे अछूता था। पर, अब ये गंदगी यहाँ भी बरसने लगी! मीडिया भी चटखारे लेकर ऐसे भाषणों को सुर्खियां बना रहा है! 
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- हेमंत पाल 

    चुनाव प्रचार के अंतिम दौर में सत्ता की दावेदार पार्टियों के बीच भाषा बहकने की घटनाएं आम होती जा रही है। प्रचार की ये वो गंदगी है, जिसे रोकने की कोई भी कोशिश अब तक कामयाब नहीं हो सकी! क्योंकि, पार्टियों के बड़े से लगाकर छोटे नेता तक यही भाषा बोल रहे हैं, तो कार्यकर्ता भी वही बोलने लगते हैं। क्योंकि, उन्हें लगता है कि यही सही भाषा होगी! हमारे यहाँ शब्द को ब्रह्म मानने की परंपरा है। लेकिन, राजनीति में इसी ब्रह्म शब्द की जो हालत हो रही है, उससे सभी वाकिफ हैं। राजनीति में प्रचार की भाषा ने समाज में जो भावना पैदा की है, उसने ही हिंसा की स्थितियों को जन्म दिया। इसी तरह की भाषा ने ग़ैर-संस्थागत शक्तियों को भी सड़क पर हिंसात्मक स्थितियां बनाई हैं। राजनीति में चुनाव प्रचार की इसी असभ्य भाषा ने हिंसा को उकसाया और उसे मॉब लिंचिंग तक ले आया। जिस तरह के कटाक्ष किए जाने लगे हैं, वो गलियों से ज्यादा बुरी भाषा है। कुछ समाजों में गालियां उनकी संस्कृति का हिस्सा हैं, लेकिन अब ये उस समाज में भी शरीक हो गए जिसका प्रतिनिधित्व राजनीति करती है। 
    राजनीति की मौजूदा भाषा ने समाज में भय के साथ आक्रामकता पैदा की है! ऐसी ही किसी मानसिकता से समाज में मॉब लिंचिंग का जन्म हुआ है। इसलिए कि राजनीति में जब भाषा की मर्यादा के बंधन टूटते हैं, तो सबसे ज्यादा महिलाओं को ही निशाने बनाया जाता है। चुनाव प्रचार में भाषा के गिरते स्तर से महिलाएँ सबसे ज्यादा दुखी हैं। जब राजनीति के मंचों पर ऐसी भाषा का उपयोग किया जाएगा, तो कैसा समाज बनेगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। राजनीति में महिलाओं के प्रति सोच इतनी गंदी हो गई है, कि योग्य महिलाएं भी इससे कतराने लगी हैं। जो महिलाएँ सोचती थीं, कि वे आधी आबादी हैं और राजनीति के मैदान में पुरूषों के साथ कदमताल करने में समर्थ हैं, वे चिंतित हो गईं! इसलिए कि सबसे ज्यादा कटाक्ष उन पर किए जाते हैं। खुद को ऊंचा और दूसरे को नीचा दिखाकर, जातियों पर टिप्पणी करने से तात्कालिक फ़ायदा तो मिल सकता है, इससे लोकतंत्र दरकने लगता है।
   लोकतंत्र में शब्दों की अपनी मर्यादा होती है? जरुरी नहीं कि प्रतिद्वंदी को गालियां देकर ही वोट कबाड़ने की जुगत जमाई जाए! नेताओं और उनके गुर्गों को ये भाषाई हमले सही लगते हों, पर भद्र समाज इसे पसंद नहीं करता! सभ्य भाषा में भी आक्षेप लगाए जा सकते हैं! लेकिन, लगता है मध्यप्रदेश में दोनों पार्टियों के बड़े नेताओं ने भी मर्यादा और शर्म छोड़ दी! मंच के सामने मौजूद गिनती भर लोगों को उद्वलित करने के लिए बाजारू भाषा बोली जा रही है। अनुभव बताता है कि ऐसी स्थिति में जनता की प्रतिक्रिया अच्छी नहीं होती! ज्यादातर जनादेश गालियों के खिलाफ गए हैं। 
   भाषा की सभ्यता ही समाज को आपस में जोड़ती है, स्वस्थ लोकतंत्र के लिए ये जरूरी भी है। लेकिन, लगता है आज की राजनीति में नैतिकता और सिद्धांत पूरी तरह गायब हो गए। यहाँ विचार कम और व्यक्तिगत हमले हावी होने लगे! यदि ये स्थिति अदने नेताओं में होती तो उसे समझा जा सकता था। क्योंकि, उनमें परिपक्वता नहीं होती! किंतु, अब बड़े नेताओं ने भी नाम लेकर व्यक्तिगत हमले शुरू कर दिए। चुनाव प्रचार में जनता की सहानुभूति के लिए इनका इस्तेमाल करने की कोशिश होती है, लेकिन कई बार दांव उल्टा पड़ जाता है। आज राजनीति जिस मुकाम पर पहुंची है, वहां बड़े नेताओं में सीधे टकराव की स्थिति बढ़ी है। स्वस्थ चुनाव फ़िलहाल लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। क्योंकि, हर राजनीतिक पार्टी के नेता मंच पर प्रतिद्वंदी पार्टी के नेताओं को दुश्मन समझने लगे हैं। उन्हें लगता है कि वे जितने अपशब्द बोलेंगे, सुनने वाले उतने ज्यादा प्रभावित होंगे और उनका वोट बैंक मजबूत होगा। लेकिन, ये क्षणिक आवेश वाली बात होती है। नेता के मंच से उतरने के बाद उसकी अच्छी बातों को कोई याद नहीं रखता, पर उसकी अमर्यादित भाषा की आलोचना जरूर होने लगती है। 
    नेताओं की भाषा लगातार मर्यादा की सीमा लांघ रही है। इसके साथ ही राजनीति में भाषा का स्तर गिर रहा है। यही कारण है कि राजनीति के मूल स्वभाव में काफी गिरावट आई! नेता भी अपने संस्कारों का परिचय अपने आचरण से देने में बाज नहीं आ रहे। भाषा की गिरती मर्यादा ने भी साबित कर दिया कि हम टेक्नोलॉजी में कितना भी एडवांस हो जाएं, सामाजिक धरातल पर हम बहुत तेजी से गर्त में जा रहे हैं। मंचों के अलावा सोशल मीडिया पर अब ऐसे शब्दों का इस्तेमाल होता दिखाई देने लगा है, जो असंस्कारित है। उसे सीधी भाषा में गाली बकना कहना भी गलत नहीं होगा। मतदाताओं को बरगलाने के लिए नेताओं की बदजुबानी जिस तरह आसमान छूने लगी है, वो भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है। राजनीति के मंच से जिस तरह की अमर्यादित और स्तरहीन भाषा बोली रही है, वह उस लोकतंत्र की शिक्षा नहीं है, जिसका पाठ पढ़ाया जाता रहा है। इससे सिर्फ सामाजिक ढांचा ही नहीं दरक रहा, पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया प्रभावित हो रही है।
    आज नेताओं के चुनावी भाषण एक-दूसरे को चेलैंज देने, आरोप लगाने और निजी लांछन तक सीमित होते जा रहे हैं। बड़े नेताओं से भाषण में जिस संयम और शालीनता की उम्मीद जाती है, वो पूरी तरह तिरोहित हो गई! 1996 के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट में स्पष्ट कहा था 'राजनीतिक पार्टियों के बड़े नेताओं की बड़ी जिम्मेदारी है, कि वे अपनी भाषा का ऐसा उपयोग करें, जिससे उनसे नीचे वालों को प्रेरणा मिले।' लेकिन, भाषा की ये गंदगी ऊपर से ही नीचे आई है। अब तो संसद तक में ऐसे तंज कसे जाते हैं, जो सामाजिक धरातल पर स्तरीय नहीं कहे जा सकते! ऐसी भाषा बोलने में कोई भी पीछे नहीं रहता! यही भाषा वहां से निकलकर मीडिया में आती है और फिर मंच पर! कुछ नेता हमेशा अपने बिगड़े बोलों के कारण सुर्खियों में बने रहते हैं। उन्हें लगता है कि वे जितना कटाक्ष करेंगे, मीडिया में उन्हें उतनी तवज्जो मिलेगी! चुनावी रैलियों या सोशल मीडिया पर विवादास्पद टिप्पणियां करके ये लोग सुर्ख़ियों में रहना चाहते हैं। ये दोष किसी एक पार्टी को नहीं दिया जा सकता, हर पार्टी के नेता इसमें शामिल रहे हैं। 
 स्तरहीन भाषा को बढ़ाने में मीडिया की भी खासी भूमिका रही है! इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का दायरा बढ़ने के बाद ये चलन कुछ ज्यादा ही बढ़ा है। क्योंकि, मीडिया ने ऐसे नेताओं की बातों को ज्यादा चटपटे ढंग से पेश करना शुरू कर दिया। इससे उन्हें लगने लगा कि चर्चा रहने के लिए द्विअर्थी, स्तरहीन भाषा और अमर्यादित बातें ज्यादा बोली जाएं, तो जनता के बीच उनकी लोकप्रियता छलांग मारने लगेगी। लेकिन, अब ये जनता यानी मतदाताओं को तय करना है कि वे किसे चुनें! अच्छा हो, कि अमर्यादित भाषा बोलने वाले नेताओं का सामाजिक बहिष्कार किया जाए, फिर वे किसी भी पार्टी के क्यों न हों! राजनीतिक मंच से असंस्कारित भाषा बोलने वाले नेताओं के खिलाफ कानूनी प्रावधान किए जाना अब जरूरी लगने लगा है। जब ऐसी सख्ती होगी, तभी नेताओं की भाषा पर भी अंकुश लगेगा। 
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