Friday, December 30, 2016

रैलियों के सामने दुबका प्रशासन और सिमटी गाइड लाइन!


- हेमंत पाल 

  भीड़ का कोई चरित्र नहीं होता और न कोई मर्यादा! इसी भीड़ का बदला चेहरा है सडकों पर निकलने वाली रैलियाँ! कभी ये रैलियाँ राजनीतिक होती है, कभी धार्मिक तो कभी सामाजिक! इंदौर में एक ऐसी ही राजनीतिक रैली का उत्साह एक बच्चे की जान पर बन आया! ज्ञान, शील, एकता और अनुशासन का दावा करने वाले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) की रैली के कारण हुए ट्रैफिक जाम कारण एक बीमार बच्चे को अस्पताल पहुँचाना मुश्किल हो गया! क्योंकि, सत्ताधारी भाजपा से जुड़े इस छात्र संगठन के सामने पूरा जिला और पुलिस प्रशासन शरणागत था! इंदौर में ये पहली बार नहीं हुआ! इससे पहले भी एक घटना में बीमार की जाम में फंसने से मौत हो चुकी है! दरअसल, ये समस्या सिर्फ इंदौर की नहीं है! प्रदेश के सभी छोटे-बड़े शहरों के वासियों को इस तरह की रैलियों से अकसर जूझना पड़ता है। कहने को इस तरह की रैलियों के लिए जिला प्रशासन ने गाइड लाइन बना रखी है! लेकिन, ये गाइड लाइन अकसर सत्ता की उँगलियों की कठपुतली बन जाती है! इंदौर में भी रैलियों के लिए गाइड लाइन तो है, पर उसका कभी पालन नहीं होता! कभी किसी नेता की रैली लोगों का रास्ता बंद कर देती है, कभी कोई धार्मिक यात्रा लोगों की दिनचर्या के आड़े आ जाती है! सवाल ये है कि प्रशासन की सारी कथित सख्ती इन शक्ति प्रदर्शन करने वाली भौंडी रैलियों के सामने दुबक क्यों जाती है?
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   रैलियों का चरित्र बड़ा विचित्र होता है! ये किसके लिए होती हैं, क्यों होती हैं और इससे क्या हांसिल होता है? इसका कोई ठीक-ठीक मकसद सामने नहीं आ पाया! इस तरह की रैलियों से कौन प्रभावित होता है, इसे लेकर भी कोई अध्ययन शायद आजतक नहीं हुआ! ये बात सिर्फ राजनीतिक रैलियों के लिए नहीं, उन सभी राजनीतिक और धार्मिक संगठनों पर भी लागू होती है, जो रैलियों के पक्षधर हैं! सभाओं का तो मकसद साफ़ है कि अपनी बात कहने और विरोधी की आलोचना के लिए ये सबसे सशक्त माध्यम है! पर, सड़क पर भीड़ इकट्ठा करके उद्दंडता दिखाना महज भौंडे शक्ति प्रदर्शन के अलावा और कुछ नहीं है! ऐसे प्रदर्शनों से सिर्फ वे ही लोग खुश होते हैं, जो इसका हिस्सा होते हैं! बाकी तो सारे लोग इसके खिलाफ ही हैं! क्योंकि, सड़कें मंजिल तय करने और गंतव्य तक पहुँचने के लिए होती हैं, शक्ति प्रदर्शन के लिए कदापि नहीं! रैलियों के कारण वे सारे लोग प्रभावित होते हैं, जो इन सड़कों से गुजरते हैं! आखिर स्कूल जाने वाले बच्चों, एम्बुलेंसों, ऑफिस जाने वाले लोगों और सड़क से गुजरने वालों का इन रैलियों से क्या वास्ता? अब तो ये रैलियाँ हादसों का भी कारण बनती जा रही हैं!     
 हाल ही में इंदौर के पश्चिमी इलाके का बड़ा हिस्सा करीब तीन घंटे तक ऐसी ही राजनीतिक रैली का बंधक रहा। इसी रैली के कारण एक बच्चा मौत के मुँह में जाते-जाते बचा जो तेज बुखार के बाद बेहोश हो गया था! उसे अस्पताल ले जाना था, लेकिन, रैली के कारण ट्रैफिक जाम था! उस बच्चे को गोद में उठाए उसकी बुआ वाहनों की भीड़ के बीच से रास्ता देने की गुहार लगाती रही। लेकिन, न तो वहां तैनात पुलिसवालों ने कोई पहल की और रैली के आयोजकों ने! ऐसे में कुछ संवेदनशील लोग सामने आए और उस बच्चे को वक़्त पर अस्पताल पहुँचाया! क्योंकि, हज़ारों उत्साही और उच्श्रृंखल युवाओं की भीड़ की वजह से चारों तरफ अराजकता का माहौल था! रैली में नारे लगाती भविष्य के नेताओं की भीड़ भी ये सब देखते हुए अपनी राह चलती रही! इस महिला की पीड़ा तो सामने आ गई! पर, शहर में जहां-जहां से ये रैली गुजरी, उस इलाके के लोग परेशान होते रहे! ये रैली एबीवीपी के देशव्यापी सम्मेलन की शुरुवात पर निकाली गई थी! देशभर से आए कार्यकर्ताओं को शहर की संस्कृति से परिचित कराने के लिए निकली इस रैली से शहर परेशान ज्यादा हुआ! पुलिस और प्रशासन को रैली की पूर्व सूचना भी थी! लेकिन, रैली शुरू होने के आधे घंटे में ही हालात बेकाबू हो गए। 
  आजकल हर शहर में ऐसी रैली निकलना आम बात है। कभी राजनीतिक पार्टियां, कभी धार्मिक संगठन तो कभी सांस्कृतिक रैलियों के कारण छोटे-बड़े शहर बंधक बन जाते हैं! व्यवस्था में लगे ट्रैफिक पुलिस के जवान प्रभावित लोगों को छोटी-छोटी गलियों में हकाल देते हैं! ये जाने बगैर कि क्या सडकों की भीड़ गलियों के रास्ते गंतव्य तक पहुँच सकेगी? नतीजा ये होता है कि सड़क पर रैलियों का उत्साह कुंचाले भरता है और गलियों में लोग गुत्थम-गुत्था होते रहते हैं! ये हर उस शहर की कहानी है, जो इस तरह की रैलियों की पीड़ा को झेलने के लिए अभिशप्त है! इंदौर अकेला शहर नहीं है, जहाँ राजनीतिक पार्टियों और धार्मिक संगठनों की रैलियां निकलती हैं। करीब सभी शहर ऐसी रैलियों और प्रदर्शनों को भोगते हैं! लेकिन, इस सबके बीच आम लोगों की परेशानियों से किसी को सरोकार नहीं! प्रशासन भी सत्ता के जोर के सामने खुद को असहाय पाता है। रैलियों के रुस्तम सड़कों को जाम करना अपनी शान समझते हों, लेकिन एंबुलेंस, स्कूल बसों, ज़रूरतमंदों और अपने काम पर जाते लोगों को घंटों एक जगह पर रोक देना क्या ठीक है? इसे लेकर प्रशासन पर भी उंगलियाँ उठती हैं। 
  आखिर क्यों शहर के बीचों-बीच या फिर व्यस्ततम रास्तों में रैलियों की इजाजत ही क्यों दी जाती है? शहर की ट्रैफिक व्यवस्था को तोड़मरोड़ देने वाली इन रैलियों और प्रदर्शनों पर या तो रोक लगनी चाहिए या फिर रैलियां शहर के बाहर कम ट्रैफिक वाले रास्तों से होकर गुज़रें! ये संभव न हो तो प्रशासन इतनी मुस्तैद व्यवस्था करे कि रैली और गुजरने वाले लोग दोनों ही रास्तों से निकल सकें। जब रैली की आड़ में राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता सड़क पर अपना जोश दिखाने उतरते हैं, तो लगता है जैसे पूरा शहर इनकी प्रजा है! आखिर एंबुलेंस, बीमार, स्कूल बस और आम आदमियों के सामने इस शोर-शराबे का क्या मतलब? 
   रैलियों और प्रदर्शनों की ख़बर सुनते ही लोगों के सामने से ट्रैफिक जाम में फंसने की आशंका उभरने लगती है। क्योंकि, इन रैली या प्रदर्शनों की विशालता और सफलता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जाता है कि उसमें कितने लोग शामिल हुए? सड़कों पर कितना लंबा ट्रैफिक जाम लगा और लोग कितना परेशान हुए? इस तरह के आयोजन जनता के मुद्दे उठाने के नाम पर किए जाते हों, पर परेशान भी जनता ही होती है! ये एक तरह से राजनीतिक संवेदनहीनता का लिटमस टेस्ट है। इस तरह के आयोजनों के गर्भ में वीआईपी कल्चर और आम आदमी के बीच फर्क बताने वाला सोच है। सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि नेता जब वोट मांगने आते हैं, तो वे आम आदमी के सबसे बड़े हितैषी होने का दावा करते हैं। लेकिन, वोट मांगने की प्रक्रिया में ही वे लोगों की ही मौत की वजह बन जाते हैं। उन्हें इस बात की चिंता नहीं होती कि उनकी रैली की वजह से किसी की जान जा सकती है। क्योंकि, जब मरीज को ले जा रही एम्बुलेंस के पहिये थमते हैं, तो अंदर मरीज की साँसों के भी थमने का खतरा बढ़ जाता है!     
 वैसे भी हमारे देश में एंबुलेंस को रास्ता देने का कोई नियम नहीं है! एंबुलेंस को रास्ता देने की सोच ज़्यादातर लोगों में दिखाई नहीं देती। देश में एम्बुलेंस जैसे आपात वाहनों का रास्ता रोकने या रास्ता न देने पर अलग-अलग राज्यों में 500 रूपए से 2 हज़ार रूपए तक जुर्माने का प्रावधान है। शायद ही कोई इस नियम के बारे में जानता होगा! जानता भी होगा, तो इस कानून का सम्मान नहीं होता है। आम लोगों के लिए ये भले कानून हो, लेकिन संवेदनहीन नेताओं के लिए देश में कोई कानून नहीं होता! ऐसी तस्वीरें आम होती हैं, जब ट्रैफिक सिग्नल पर कोई एंबुलेंस रास्ता मिलने का इंतज़ार कर रही होती है। लेकिन, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता! एंबुलेंस को रास्ता देना सभी की नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी है, जिसका अहसास होना भी बहुत ज़रूरी है। लेकिन, उससे भी ज्यादा जरुरी है आम आदमी की तकलीफों का ध्यान रखकर रैलियों से तौबा करना! ये सबक राजनीति के साथ धार्मिक और सामाजिक संगठनों के ठेकेदारों के लिए भी उतना ही जरुरी है! यदि ये लोग आसानी से काबू में न आएं तो प्रशासन का दायित्व बनता है कि वे नियम-कानून के चाबुक से रैलियों को सड़कों से धकेलकर सड़कों को आम लोगों के लिए खाली करवाए!  
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Sunday, December 25, 2016

प्यार के इजहार की अमर दास्तान

- हेमंत पाल 

   वक़्त के साथ सब कुछ बदलता है। सिनेमा भी और समाज भी! जो नहीं बदलता उनमें से एक है 'प्रेम कहानियां!' जब से सिनेमा के परदे ने जन्म लिया, वो प्रेम के रंग में रंग गया। लेकिन, समाज के दौर के साथ सिनेमा के परदे पर प्रेम कहानियां भी बदलती रही। हर दौर की प्रेम कहानियां भी अलग-अलग होती है। हमने अपने हीरो भले सिनेमा से नहीं पाए हों, लेकिन प्यार का इजहार तो उन्हीं से सीखा! प्रेम के मामले में सिनेमा अनूठी दुनिया रचता रहा है। ये उन तमाम कल्पनाओं को असल रंग देता है, जिन्हें छोटे कस्बों और शहरों में जवान होते पूरा करना मुमकिन नहीं होता! सिनेमा और उसके सिखाए प्रेम के इस फलसफे का असल मतलब इस परदे ने ही सिखाया! सामाजिक व्यवस्थाओं के बंधनों के उलट दिलों में जन्म लेती हर प्रेम कहानी पर सिनेमा की छाप होती है। प्रेमी जोड़ों ने कभी पहली मुलाकात के लिए घर का पिछवाड़ा चुना, तो किसी ने महबूबा को देखकर रोमांटिक फ़िल्मी गीत गुनगुनाया!

  जब भी परदे की अमर प्रेम दास्तान का जिक्र होता है 'मुगले आजम' के बिना बात पूरी नहीं होती! फिल्म में सामंती व्यवस्था के गढ़ में प्रेम का खुला इजहार करती अनारकली का गाना 'प्यार किया तो डरना क्या' कौन भूल सकता है! ये फिल्म सामंती समाज के सामने विरोध स्वरूप खड़े 'प्रेम' का अमर दस्तावेज भी है। ब्लैक एंड व्हाइट ज़माने की ऐसी ही एक फिल्म थी 'जिस देश में गंगा बहती है!' इसमें नायक राजकपूर का नायिका वैजयंती माला से प्रेम का इजहार करने का अंदाज आज भी उस ज़माने के लोगों को याद होगा! फिल्म के एक सीन में नायक का ये कहना 'कम्मो, शिवजी की कृपा रही तो एक दिन मेरा एक फूल सा लल्ला होगा! क्या आप मेरे उस लल्ला की माँ बनेंगी?' जबकि, नए दौर में क्या कोई अपने  प्रेम का इस तरह इजहार करेगा? बीते ज़माने एक फिल्म थी 'तेरे घर के सामने' जिसमें कुतुब मीनार के भीतर देव आनंद से नूतन पूछती हैं कि क्या तुम्हें खामोशी की आवाज सुनाई देती है? देव आनंद अपने अंदाज में नूतन से कहते हैं 'हमें तो बस एक ही आवाज सुनाई देती है, दिल की आवाज!' इसके साथ ही एसडी बर्मन का रचा गीत बज उठता है 'दिल का भंवर करे पुकार, प्यार का राग सुनो!'
 मारधाड़ से भरी फिल्म 'शोले' में वीरू और बसंती के मुँहफट प्रेम का जो भी अंदाज था, पर असल प्रेम कहानी तो जय (अमिताभ बच्चन) और राधा (जया) ने रची! इन दोनों के बीच जो भी बंधन था, उसमें जय के माउथऑर्गन का संगीत घुला था। इसे सिनेमा संसार की सबसे खामोश प्रेम कहानी भी कहा जा सकता है। बरामदे में बैठे अमिताभ माउथऑर्गन बजा रहे हैं, जया ऊपर लैंप बुझाती हैं। उस वक़्त दोनों की आँखों की कशिश बहुत कुछ कहती है। अमिताभ की मौत के बाद जया वो खिड़की बंद कर देती है, जो जय के कमरे की तरफ खुलती है। आमिर खान, प्रीति जिंटा की फिल्म 'दिल चाहता है' को नई पीढ़ी के लिए ट्रेंड सेटर समझा जाता है। इसमें प्यार को कविता के अंदाज में प्रदर्शित किया गया है। नई पीढ़ी के लिए ये फिल्म आज भी लव-एंथम जैसी है। मोहब्बत के रंग में रंगी एक और फिल्म है 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' जिसका हर सीन प्यार का इजहार ही था! इस फिल्म का ये दृश्य कौन भूल सकता है! 'राज, अगर ये तुझे प्यार करती है तो पलट के देखेगी, पलट ... पलट!' 
  सई परांजपे की फिल्म 'स्पर्श' में भी प्लेटोनिक प्रेम था। ब्लाइंड स्कूल के प्रिंसिपल अनिरुद्ध (नसीरुद्दीन शाह) खुद देख नहीं सकते! वे कविता (शबाना आजमी) से जानना चाहते हैं कि वो कैसी दिखती हैं? कविता उन्हें खुद की सुंदरता के बारे में बताती हैं। आंखों के बारे में, जुल्फों के बारे में, रंग के बारे में! लेकिन, अनिरुद्ध कहते हैं कि तुम मेरे लिए इसलिए सुंदर हो, क्योंकि तुम्हारे बदन की सुगंध निषिगंधा के फूलों जैसी है। तुम्हारी आवाज सितार की झंकार की तरह और तुम्हारा स्पर्श मखमल की तरह। परदे की दुनिया के ऐसे रूमानी किस्सों की कमी नहीं है। परदे पर प्रेम के इजहार के ये प्रसंग हिंदी सिनेमा में 'प्रेम' को ऐसे आयाम पर ले जाते हैं, जहाँ सारे रिश्ते गौण हो जाते हैं। 
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Friday, December 23, 2016

बड़े मुद्दे छोड़ आलू, प्याज की राजनीति में उलझी कांग्रेस

- हेमंत पाल    

   मध्यप्रदेश में राजनीति की मुख्यधारा पूरी तरह भाजपा केंद्रित हो गई! विपक्ष के रूप में कांग्रेस की भूमिका कहीं नजर नहीं आ रही! कुपोषण और व्यापम जैसे बड़े मुद्दों को अनदेखा करके कांग्रेस आलू, प्याज की राजनीति में उलझ गई! लेकिन, जनता ने जिस विपक्ष को चुना था, वो कहाँ गया? ये सिर्फ इंदौर की बात नहीं, पूरे प्रदेश में यही हालत है। कांग्रेस के गिने-चुने विधायक या तो सुप्त अवस्था में कहीं दुबके पड़े हैं या उन छोटे मुद्दों को राजनीतिक रंग दे रहे हैं, जिनका कोई भविष्य नहीं है! पिछले तीन सालों में विपक्ष के रूप में कांग्रेस ने ऐसा कुछ नहीं किया, जिसके लिए उसकी पीठ थपथपाई जाए। सरकार का विरोध करके नकारात्मक राजनीति के सहारे खुद को मीडिया में जिंदा रखने वाले कांग्रेसी नेता अभी तक आम लोगों को प्रभावित करने में असमर्थ रहे हैं! उन्हें इसका मौका भी मिला तो वे खामोश रहे।    

   मध्यप्रदेश कांग्रेस के पास मुद्दों की कमी नहीं है। बीते तीन सालों में प्रदेश सरकार ने ऐसी कई गलतियां की है, जो उन्हें कटघरे में खड़ा करने के लिए काफी थी! लेकिन, कांग्रेस के नाकारा नेताओं ने कोई पहल नहीं की! न तो विधानसभा में सरकार को घेरने की कोशिश की और न सड़क पर! व्यापम के भर्ती कांड के बाद बाल कुपोषण ऐसा ज्वलंत मुद्दा है, जो सरकार को परेशान कर सकता था। किन्तु, विपक्ष के रूप में कांग्रेस की अनदेखी से सरकार की हिम्मत बढ़ गई! ये सच किसी से छुपा नहीं है कि इस साल कुपोषण को लेकर दो आंकड़े सामने आए। जनवरी 2016 में प्रदेश सरकार के मासिक प्रतिवेदन में प्रदेश में 17 प्रतिशत बच्चे कम वज़न के होना बताया गया! लेकिन, फ़रवरी 2016 में चौथे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-4) के अनुसार मध्यप्रदेश में 42.8 प्रतिशत बच्चे कम वज़न के हैं। इस कुपोषण के कारण क्या हैं और इसके लिए दोषी कौन है, ये सभी को पता है! लेकिन, कांग्रेस इस मुद्दे से बचकर क्यों निकल गई, ये सवाल जिंदा भी है और अहम् भी!
  सरकार ने प्रदेश में कुपोषण में कमी के दावे को सही साबित करने जैसे महत्वपूर्ण काम में भी गड़बड़ी की! इसे सीधे शब्दों में ये निगरानी का भ्रष्टाचार कहा जा सकता है। सरकार की इतनी हिम्मत इसलिए बढ़ी कि उसकी निगरानी करने और उसे कटघरे में खड़ा करने वाला विपक्ष कोने में कहीं दुबका पड़ा है! वास्तव में कुपोषण को लेकर कांग्रेस ने कभी होमवर्क तक नहीं किया। मध्यांह भोजन और आंगनवाड़ियों झांकने तक की जहमत नहीं उठाई कि वहाँ क्या चल रहा है? आरोप तो यहाँ तक हैं कि कांग्रेस को जो मुद्दे बिना किसी मेहनत के बाहर से मिलते हैं, उनको लेकर भी कांग्रेस का रवैया ढीलपोल वाला रहा! वे मसले भी सरकार के सामने न उठाकर अपना स्वार्थ सिद्ध कर लिया जाता है। इसका नतीजा ये हुआ कि सरकार के खिलाफ जो गुप्त मोर्चा सक्रिय था, उसने भी कांग्रेस पर भरोसा करना छोड़ दिया! विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ कांग्रेस ने भी चुनाव घोषणा पत्र में मध्यप्रदेश को कुपोषण मुक्त बनाने का वादा किया था। लेकिन, सरकार के ढीले प्रशासन तंत्र और कमजोर इच्छाशक्ति के कारण हर साल अरबों रुपए बहाने के बाद भी कुपोषण की समस्या मौजूद है। जबकि, कांग्रेस के नाकारापन ने सरकार को लापरवाह बना दिया! जहाँ विपक्ष कमजोर होगा, वहाँ स्वाभाविक है कि सरकार लापरवाह हो ही जाएगी!
  यही सब व्यापम भर्ती घोटाला मामले में भी हुआ! इसमें कौन दोषी है, ये सच अभी सामने नहीं आया! पर, इसमें कांग्रेस की ख़ामोशी और मामले की अनदेखी ने हमेशा संदेह ही पैदा किया है। मेडीकल कॉलेज में फर्जी एडमीशन से सामने आया ये मामला इतना बड़ा हो सकता है, ये सोचा नहीं गया था। लेकिन, इसमें भी कांग्रेस की कोशिश हमेशा बचकर निकलने की ही रही! सवाल उठता है कि कांग्रेस उन बड़े मुद्दों पर चुप क्यों हो जाती है, जिनमें वो सरकार की घेराबंदी कर सकती है? विधानसभा में भी तार्किक आधार पर कांग्रेस कभी मुखर नहीं होती! विपक्ष की इससे ज्यादा ख़राब हालत क्या हो सकती है कि विधानसभा में प्रतिपक्ष का कोई औपचारिक नेता ही नहीं है! कांग्रेस की यही स्थिति संगठन के स्तर पर है! अरुण यादव का इतना दबदबा ही नहीं बन पाया कि वो मुखिया की तरह कांग्रेस को संचालित कर सकें! विधायक भी अपनी मर्जी से मुद्दों का दोहन करते रहते हैं! जीतू पटवारी इंदौर के ऐसे ही कांग्रेसी विधायक हैं जो पूरी तरह बेलगाम लगते हैं।   नोटबंदी के मुद्दे पर कांग्रेस किस तरह राजनीति चमकाने की कोशिश में लगी है, इसका सबूत कुछ दिन पहले इंदौर में दिखाई दिया। इंदौर के इकलौते कांग्रेस विधायक जीतू पटवारी ने अपने कुछ समर्थकों के साथ कलेक्टर ऑफिस के बाहर सड़क पर आलू फेंके! प्रचारित किया गया कि ये आंदोलन उन आलू उत्पादक किसानों के लिए किया गया, जिन्हें आलू के कारण भारी नुकसान उठाना पड़ा! आरोप था कि नोटबंदी के कारण किसानों का आलू थोक में एक से दो रुपए किलो बिक रहा है। इससे किसान परेशान हैं और उनके पास आत्महत्या करने के अलावा कोई चारा नहीं! ये तो वो नकली सच था, जो इस प्रदर्शन के लिए दिखाया गया। जबकि, सच्चाई इससे अलग है। हुआ ये कि बड़े आलू उत्पादकों और आलू व्यापारियों ने नोटबंदी का फ़ायदा उठाने के लिए बड़ी मात्रा में आलू का स्टॉक कर लिया था। उन्हें उम्मीद थी कि आलू जब महंगा होगा, तो वे चाँदी काटेंगे! लेकिन, उनकी चाल उल्टी पड़ गई।
  देशभर में आलू की कीमतें नहीं बढ़ी और बाजार में नई फसल आ गई। ऐसे में इन जमाखोर किसानों और व्यापारियों को घाटा होने लगा! यही सब 6 महीने पहले प्याज की फसल को लेकर हुआ था! तब सरकार ने 6 रुपए किलो प्याज खरीदकर किसानों की मदद की थी। लेकिन, सरकार को इस भलमनसाहत से बड़ा घाटा झेलना पड़ा! प्याज से किसानों को नुकसान की बात सही थी! पर इस बार कांग्रेस ने जिस मुद्दे को तूल देने की कोशिश की, वो महज आलू उत्पादक गरीब किसानों से नहीं जुड़ा है। ये मुसीबत उन जमाखोर बड़े किसानों और व्यापारियों की है, जिन्होंने मुनाफे के लिए हज़ारों बोरे आलू महंगे होने की आशंका के चलते स्टॉक कर लिया था। इनकी इच्छा तो बाद में महंगे दाम पर आलू बेचने की थी! लेकिन, आलू के सस्ते दामों ने दांव पलट दिया। इसे जब कांग्रेस विधायक जीतू पटवारी का साथ मिला। नोटबंदी के बाद परेशान कथित आलू उत्पादक किसानों की लड़ाई लड़ रहे विधायक जीतू पटवारी ने इंदौर जिला जेल में तीन ट्रैक्टर आलू भी पहुंचाए। दरअसल, पटवारी ने जब प्रदर्शन किया तो पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर जिला जेल भेज दिया था। जेल से रिहा होने के अगले दिन बाद वे आलू लेकर जिला जेल पहुंचे और परिसर में रख दिए।
   इसी साल मई में जीतू पटवारी ने इसी तरह का प्रदर्शन प्याज उत्पादकों के लिए किया था। प्रदेश में प्याज का उत्पादन इतना अधिक हो गया था, कि किसान लागत नहीं निकल पाने के कारण प्याज को 20 से 30 पैसे किलो बेचने को मजबूर हो गए थे। तब भी विधायक पटवारी के साथ किसान प्याज की गिरती कीमतों के विरोध में प्रदर्शन करने कलेक्टर ऑफिस पहुंचे थे। प्रदर्शन के दौरान किसानों ने कलेक्टर ऑफिस के बाहर सड़क पर प्याज फैंका! वे किसान भी राऊ विधानसभा क्षेत्र के बिजलपुर के थे। किसानों ने साथ लाया प्याज सड़कों पर बिखेर दिया था। कुछ देर में कलेक्टर ऑफिस के आसपास की पूरी सड़क प्याज के ढेर से पट गई! कलेक्टर ऑफिस के आसपास की बस्तियों में रहने वाले लोगों और कई राहगीरों में सड़क पर बिखरी इस प्याज को उठाकर अपने साथ ले जाने के लिए होड़ मच गईं। लेकिन, तब मुद्दा सही था इसलिए सरकार ने भी उसे गंभीरता से लिया और मदद के लिए आई! जीतू पटवारी को लगा कि उनका पुराना फार्मूला फिर काम कर जाएगा, पर ऐसा नहीं हुआ! इस मामले में विधायक के साथ कांग्रेस  को भी बट्टा लगा है!
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Tuesday, December 20, 2016

सौ करोड़ की दौड़ में पीछे छूटे गाँव



हेमंत पाल 

   याद कीजिए, बीते कुछ सालों में आपने कोई ऐसी नई फिल्म देखी है जिसमें ठेठ गाँव नजर आया हो? 'लगान' के बाद तो शायद ऐसी कोई फिल्म आई भी नहीं, जिसकी पूरी कहानी गाँव पर केंद्रित हो! 'पीपली लाइव' जरूर आई, पर उसमें किसानों के लिए बनी योजनाओं को बाबुओं और अफसरों द्वारा हड़पने का जिक्र ज्यादा था! अभी जो फ़िल्में आ रही हैं, वो हाई-फाई सोसायटी के आसपास घूमती हैं। उसमें कारपोरेट कल्चर होता है, कंपनियों को टेकओवर करने की चालें होती हैं, पर कहानी मेट्रो शहरों से बाहर नहीं जाती! 
  अब तो गाँव की जिंदगी और परंपराओं पर फ़िल्में बनाने के लिए पहचाने जाने वाले 'राजश्री' भी बड़े परिवारों की कहानियों पर मल्टीस्टारर फ़िल्में बनाने लगे हैं! नदिया के पार, बालिका वधु और गीत गाता चल जैसी कालजयी फ़िल्में बनाने वाली ये फिल्म निर्माण कंपनी भी गाँवों से शहर पहुँच गई! सारा मामला व्यावसायिक है। सौ करोड़ के क्लब में शामिल होने की अंधी दौड़ से कौन पिछड़ना चाहेगा? इस नजरिए से देखा जाए तो सिनेमा के परदे से गाँव की मिट्टी की सौंधी महक और लोकगीत तो गायब हो गए! ये दौर आज-कल में नहीं आया! 80 के दशक के बाद से ही फिल्मकारों ने धीरे-धीरे गाँवों की धूलभरी पगडंडी को छोड़ दिया था!
  हिंदी फ़िल्मी दुनिया की सर्वाधिक सफल मानी जाने वाली रमेश सिप्पी की 'शोले' रामगढ़ नाम के गाँव की ही कहानी थी! लेकिन, वास्तव में इस फिल्म से भी गाँव नदारद था। जो गाँव था वो डाकू गब्बर सिंह और बदले पर उतारू ठाकुर साहब के बीच कहीं गुम था। यहाँ तक कि फिल्म के गीतों में भी गाँव नहीं झलका! फिल्म में कोई लोकधुन सुनाई नहीं दी! गब्बर सिंह भी अपने अड्डे पर अरबी धुन वाला 'महबूबा ओ महबूबा' गाना सुनता है। याद किया जाए कि 'शोले' की सफलता ने फ़िल्मी गाँव की जिंदगी को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया! इससे पहले जो फ़िल्में गाँव के जीवन पर बनी, उनमें एक अलग सी महक होती थी! गाँव हमारा-शहर तुम्हारा, दो बीघा जमीन, आक्रोश को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। 
  1980 में गोविन्द निहलानी ने गाँव पर केंद्रित फिल्म 'आक्रोश' आई थी। यह फिल्म एक लोमहर्षक सच्ची घटना पर बनी थी। कहानी लहनिया भीकू नाम के एक किसान की है, जो ज़मींदार के अत्याचारों से त्रस्त है। उसकी पत्नी के साथ ये लोग गैंगरेप करते हैं, लेकिन जेल होती है लहनिया को! पत्नी लक्ष्मी शर्म से ख़ुदकुशी कर लेती है। जेल नई निकालकर उसे पत्नी के अंतिम संस्कार के लिए लाया जाता है। वहाँ गैंगरेप करने वाले उसकी बहन को ही ललचाई नज़रों से देखते हैं। वह पास पड़ी कुल्हाड़ी उठा लेता है और उन गुंडों को काट डालता है। ये था गाँव और वहाँ का दर्द! इसी दौर में डाकुओं पर भी फ़िल्में बनी उनमें भी गाँव था, अत्याचार था और डाकू बनने की एक संवेदनशील कहानी थी! 
 आज का दर्शक तो परदे पर देश कम, विदेश ज्यादा देखता है। परदे से गाँव नदारद होने का सबसे ज्यादा असर ये हुआ कि अपनत्व की भावना गायब हो गई! आज की कहानियों में तो काल्पनिक प्रेम और मौज मस्ती ही ज्यादा होती है। जबकि, सिनेमा का मकसद सिर्फ मनोरंजन नहीं है। सिनेमा समाज का आईना भी है। दर्शकों को सामाजिक समस्याओं और उनके निवारण की राह भी दिखाई जाना चाहिए। हमारे देश की 60 फीसदी आबादी गाँवों में रहती है। ऐसे में परदे पर गाँव का प्रतिनिधित्व घटता जा रहा है! इसके साथ ही आज तो सिनेमा हॉल में किसी सीन पर दर्शकों की आँखें तक नहीं भीगती! क्योंकि, ऐसे दृश्यों में आज के  फिल्मकार भावनाएं नहीं डाल पाते! अब तो सिनेमा हॉल में सिक्के भी उछलते नहीं दिखते! शायद ही बरसों से किसी ने सिनेमा हॉल में किसी दर्शक को गाने पर डांस करते देखा हो! इसलिए कि अब न तो फ़िल्मी कथानकों में भावनात्मकता है और मिट्टी की वो महक जिससे हिंदी का फिल्मलोक रोशन था! 
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आलू के जमाखोरों के लिए सड़क पर उतरी कांग्रेस!

- हेमंत पाल 

 बड़े मुद्दों से मुँह फेरकर बैठी कांग्रेस अब छोटे-छोटे मामलों पर राजनीति करने लगी! इंदौर में कांग्रेस विधायक ने पहले प्याज को मुद्दा बनाकर राजनीति की रोटियाँ सेंकने का काम किया था! अब सड़क पर आलू बिखेरकर राजनीति गरमाई! तीन दिन पहले कलेक्टरेट के सामने आलू फैंके थे, आज इसी मुद्दे पर चोइथराम मंडी बंद करवाई! जबकि, असलियत में आम आदमी के लिए आलू सस्ता नहीं हुआ, फिर ये मुद्दा कहाँ से पनपा? वास्तव में आलू के बड़े किसानों और स्टॉकिस्टों के दबाव में कांग्रेस सड़क पर उतरी है! 
   इंदौर जिले की आठ विधानसभा सीटों में से सात पर भाजपा के विधायक हैं। अकेली राऊ सीट कांग्रेस के पास है! इसी एक सीट के विधायक जीतू पटवारी के बारे में चर्चित है कि वे बेसिरपैर के मुद्दों हवा देकर माहौल बनाते हैं! तीन दिन पहले उन्होंने आलू उत्पादकों की अगुवाई की और प्रशासन के सामने तीन ट्रॉली आलू बिखेर दिए! वास्तव में ये आलू के किसानों की समस्या जैसा मसला नहीं है! ये आलू का स्टॉक करने वालों को कांग्रेस के समर्थन से जुड़ा मुद्दा है। असल बात ये है कि कुछ बड़े किसानों और आलू व्यापारियों ने आलू के भाव बढ़ने की आशंका से आलू की जमाखोरी की थी! लेकिन, देशभर में आलू के भाव नहीं बढे! जब इन जमाखोरों को नुकसान हुआ, तो उन्होंने विधायक को साथ ले लिया और 16 दिसम्बर को ये तमाशा किया! पटवारी ने अपने साथ इंदौर के बड़े कांग्रेसी नेताओं को भी इस जमावड़े में बुलाया था, पर असलियत सामने आने पर सभी खिसक लिए! इंदौर में आलू राजनीति सोमवार को भी हुई! विधायक जीतू पटवारी ने चोइथराम मंडी बंद कराई और धरना देते हुए सरकार से मांग की कि आलू का समर्थन मूल्य 8 से 10 रूपए निर्धारित करे! सरकार ने जिस तरह प्याज खरीदे, वैसे आलू भी खरीदे! 
  इंदौर से आलू देशभर की मंडियों में सप्लाई होता है! इसके अलावा इंदौर में ब्रांडेड वेफर्स निर्माताओं के भी प्लांट हैं! लेकिन, ये नई फसल के वक़्त ही सौदा कर लेते हैं। नोटबंदी के बाद अंदाजा लगाया गया था कि आलू के भाव आसमान छुएंगे! इसी लालच में बड़े आलू उत्पादक किसानों और स्टाकिस्टों ने भारी स्टॉक कर लिया! लेकिन, थोक में आलू एक से दो रुपए किलो पर आ गया और नई फसल भी बाजार में आ गई। ये सीधे-सीधे बड़े नुकसान का संकेत था। आलू गले पड़ते देख राऊ के बिजलपुर इलाके के कुछ बड़े आलू उत्पादकों ने विधायक जीतू पटवारी को आगे करके ये धमाल किया! विधायक ने भी इसे राजनीतिक रंग देने में कसर नहीं छोड़ी! जबकि, फुटकर में आज भी आलू करीब 20 रुपए किलो है। थोक में 2 रुपए किलो बिकने वाला आलू लोगों को फुटकर में 20 रुपए किलो खरीदना पड़ रहा है! कांग्रेस विधायक उनके पक्ष में आवाज उठाने के बजाए उन बड़े किसानों और आलू का स्टॉक करने वालों के समर्थन में खड़े हो गए, जिन्होंने बड़े फायदे के लालच में स्टॉक किया था।           
ये लालच नतीजा 
* ज्यादा मुनाफा कमाने की लालच में आलू के बड़े किसानों और स्टॉकिस्टों ने माल रोक रखा था। जब देशभर में आलू के भाव नहीं बढे और नई फसल आने लगी तो नुकसान से घबराकर इस मामले को राजनीतिक रंग दे दिया! आलू, प्याज के बाद लहसुन में भी यही स्थिति आना है। क्योंकि, मौसम अच्छा है, तो फसल भी बम्पर होगी। 
- मुरली हरियाणवी (अध्यक्ष, आलू, प्याज, लहसुन होलसेल व्यापारी एसोसिएशन, इंदौर) 
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Friday, December 16, 2016

बिन 'कैलाश' इंदौर में लावारिस सी हो गई भाजपा?



- हेमंत पाल 

   मध्यप्रदेश की राजनीति में कैलाश विजयवर्गीय के होने का अपना एक मतलब है। उनकी राजनीतिक शैली से कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है, पर उनको पसंद करने वाले उससे कहीं ज्यादा है। प्रदेश की राजनीति से अलग होकर भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव बने उनको डेढ़ साल हो गए! इन डेढ़ सालों में प्रदेश की राजनीति तो अपनी गति से चल रही है, पर इंदौर में भाजपा की राजनीति ठंडी पड़ गई! शहर की राजनीति पूरी तरह टुकड़ों में बंटकर रह गई! माना कि इंदौर में कांग्रेस का अस्तित्व नहीं बचा, पर भाजपा भी तो लावारिस जैसी हो गई! शहर की छह विधानसभा सीटों में से पांच पर भाजपा विधायक हैं, पर सभी ने अपने आसपास लक्ष्मण रेखा खींच ली! सब मुख्यमंत्री से अपने चुनाव क्षेत्र को लेकर बात करते हैं! इंदौर की बात करने वाला कोई नहीं बचा! आज प्रदेश के इस सबसे बड़े शहर में कोई एक भी भाजपा नेता ऐसा नहीं है, जिसकी बात राजधानी में गंभीरता से सुनी जाती हो! इसका असर ये हो रहा कि इंदौर में नौकरशाही हावी हो गई! नेता दुबक गए, अफसर हावी हो गए। लेकिन, कैलाश विजयवर्गीय की एक खासियत है कि उन्हें शहर में अपनी पकड़ का प्रदर्शन करना भी आता है! नोटबंदी के मुद्दे पर उन्होंने इंदौर में जो रैली निकाली और अपना दम दिखाया उसने एक बार फिर शहर में उनकी पकड़ अंदाजा करा दिया!
   इंदौर की अपनी अलग ही राजनीतिक शैली है। उपनगरों में बसते जा रहे इस शहर के नेता भी उपनगरीय हो गए! विधायकों की भी उतनी चलती है, जितना उनका इलाका है! आज एक भी भाजपा नेता ऐसा नहीं है जिसमें सभी को साथ लेकर चलने का सामर्थ्य हो! जिसकी आवाज में दम हो और जो सिर्फ इंदौर की बात करे! जब प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता थी, तब भी यहाँ हमेशा एक नेता ऐसा रहा जो मुखिया होता था! बाकी नेता उसके सहयोगी होते थे! मतभेद उनमें भी थे, पर शहर के लिए सब एकजुट होते थे! दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में महेश जोशी की स्थिति इसी तरह की थी! उससे पहले कृपाशंकर शुक्ला ने अपना ख़म ठोंक रखा था! भाजपा के सत्ता में आने के बाद कैलाश विजयवर्गीय ने भी वही भूमिका निभाई! पिछले डेढ़ साल छोड़ दिए जाएं, तो एक दशक तक तो शहर में कैलाश का सिक्का खनकता रहा! उससे पहले वे इंदौर के महापौर थे, तब कांग्रेस की सत्ता होते हुए भी राजनीति का रिमोट उनके हाथ में ही था! लेकिन, उनके पार्टी के राष्ट्रीय संगठन में जाने के बाद इंदौर में भाजपा भटकाव के मोड़ पर है! विजयवर्गीय के साथी और क्षेत्र क्रमांक 2 के विधायक रमेश मेंदोला को छोड़ दिया जाए, तो बाकी के चारों विधायक के रास्ते अलग-अलग हैं! सभी के पास अपनी शिकायतें हैं और एक-दूसरे से मुँह फेरकर राजनीति करने के अपने कारण!  
  प्रदेश की सत्ता पर तीसरी बार भाजपा के काबिज होने के बाद ताकतवर मंत्री रहे कैलाश विजयवर्गीय ने सत्ता छोड़कर केंद्रीय संगठन में काम करने की राह चुनी! वे डेढ़ साल से प्रदेश और इंदौर की सक्रिय राजनीति से बाहर हैं। लेकिन, मौके-बेमौके वे अपनी मौजूदगी दिखाते रहते हैं। कई मौकों पर उन्होंने सरकार और अफसरों की कार्यप्रणाली को लेकर भी सार्वजनिक रूप से नाराजी दर्शाई! जबकि, ये भी जगजाहिर है कि इंदौर में विजयवर्गीय-मेंदोला खेमा जिला प्रशासन और नगर निगम के अफसरों की उपेक्षा का शिकार है। विजयवर्गीय से जुड़े पार्टी कार्यकर्ताओं और निगम पार्षदों की उपेक्षा किसी से छुपी नहीं है। इसी का नतीजा था कि इस खेमे के एक पार्षद के साथी कार्यकर्ता ने निगम अधिकारी के साथ मारपीट की थी! इस मामले ने इतना तूल पकड़ लिया था कि अफसर की पिटाई और पार्षद की गिरफ्तारी वाला मुद्दा किनारे हो गया और महापौर मालिनी गौड़ और विधायक रमेश मेंदोला में सीधी जंग छिड़ गई! इसी के बाद रमेश मेंदोला ने महापौर चिट्ठी लिखी थी! 
  अभी तक इंदौर के दूसरे भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय के प्रभाव की वजह से अपनी ताकत नहीं दिखा पाते थे! उन्हें लगता था कि विजयवर्गीय के कारण उन्हें मौका नहीं मिलता! अब जबकि, वे इंदौर में नहीं है और सबके लिए मैदान खुला है! फिर भी कोई और नेता आगे बढ़कर नहीं आ पाया! सभी विधायक अपने-अपने इलाके तक सीमित होकर रह गए! क्षेत्र क्रमांक 4 की विधायक मालिनी गौड़ शहर की महापौर हैं, उनके पास ये जगह लेने का मौका और संसाधन दोनों हैं! पर, वे भी निगम के कामकाज में बंधकर रह गईं! उनके पास कार्यकर्ताओं की वो टीम भी नहीं है, जो किसी नेता को बड़ा बनाती है। वे अपने परिवारवाद के मोह से ही मुक्त नहीं हो पाई। जहाँ तक निगम की सक्रियता का मामला है तो निगम कमिश्नर ने सारे सूत्र अपने हाथ में ही रखे हैं!  
  इंदौर के अफसरों से कैलाश विजयवर्गीय और उनके खेमे का शीत युद्ध अभी खत्म नहीं हुआ है! लेकिन, इसी बहाने विजयवर्गीय प्रदेश सरकार पर भी अपरोक्ष हमले करने से नहीं चूकते! पिछले दिनों उनके दो ट्वीट ने प्रदेश के राजनीतिक माहौल को अच्छा खासा गरमा दिया था! विजयवर्गीय ने 'मेट्रो' के बहाने पहले सरकार और बाद में अफसरों पर निशाना साध दिया था! उधर, मेंदोला ने शहर में विकास नहीं होने के आरोपों के मामले में चिट्ठी लिखकर महापौर को कटघरे में खड़ा किया था। डेढ़-दो साल की राजनीतिक उपेक्षा के बाद इस खेमे के अचानक मुखर होने के अपने कारण थे! लेकिन, इन दो घटनाओं ने शहर की राजनीति को झकझोर दिया! इसका असर ये हुआ कि हावी होती नौकरशाही पर नियंत्रण करने की संगठन के स्तर पर बातचीत का मुद्दा उठा! लेकिन, कुछ हुआ भी होगा, ये बात सामने नहीं आई! 
  एक गौर करने वाली बात ये भी है कि इंदौर में भाजपा नेताओं ने बीते सालों में एकजुट होकर कभी अपनी ताकत दिखाई हो, ऐसा नहीं हुआ! कैलाश विजयवर्गीय को हाशिए पर रखकर ऐसा करना तो शायद उनके लिए संभव भी नहीं है! लेकिन, विजयवर्गीय खुद अकेले ये सब करने में समर्थ हैं! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नोटबंदी के फैसले के समर्थन और कालेधन के खिलाफ कैलाश विजयवर्गीय ने पिछले दिनों सड़क पर प्रभावी प्रदर्शन किया। भाजपा के इस प्रदर्शन में केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल भी शामिल हुए। राजनीतिक पर्यवेक्षकों के मुताबिक नोटबंदी के विरोध को बेअसर करने के लिए पहली बार देश में इतनी बड़ी रैली हुई! इस रैली से विजयवर्गीय ने पार्टी नेतृत्व को सड़क पर अपनी राजनीतिक ताकत का अहसास भी करा दिया है। भाजपा के इस प्रभावी आयोजन के सूत्रधार रमेश मेंदोला ही थे। इस तरह की रैली इंदौर का कोई और विधायक कर सकता है, ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता! 
  कैलाश विजयवर्गीय के जितने समर्थक हैं, उससे ज्यादा उनके विरोधी! लेकिन, आजतक कोई ये नहीं समझ सका कि पिछले दो दशकों से ज्यादा समय से वे इंदौर के एक छत्र नेता कैसे बने हुए हैं? जबकि, उनके बारे में प्रचारित किया जाता है कि वे नकारात्मक राजनीति ज्यादा करते हैं! फिर भी उनके इलाके में कोई और नेता सिर नहीं उठा सका! उन्होंने अपनी राजनीतिक विरासत भी रमेश मेंदोला को सौंपी, जिन्हें उनका हनुमान कहा जाता है! मेंदोला के लिए सीट सुरक्षित करने बाद ही वे महू से चुनाव लड़े! इसमें भी शक़ नहीं कि विजयवर्गीय की राजनीतिक पकड़ के अपने अलग ही मायने हैं! जमीन से जुड़कर और कार्यकर्ताओं के सुख-दुःख में शरीक होकर कैसे लोगों का दिल जीता जाता है, ये उनसे सीखने वाली बात है! वे जब इंदौर में होते हैं, जीवंतता दिखाई दे जाती है। कभी वे किसी गली में क्रिकेट खेलते नजर आते हैं! कभी किसी के स्कूटर के पीछे बैठकर दिखाई देते हैं! विवाह के हर निमंत्रण को भी वे बहुत संजीदगी से लेते हैं! उनके इंदौर में होते हुए, शायद ही कोई निमंत्रण होगा जहाँ वे नहीं गए हों! कई बार तो वे रात 2 या 3 बजे भी विवाह वाले परिवार में पहुंचे! यही स्थिति शोक वाले परिवारों को लेकर भी उनकी रही है। एक बहुत छोटी सी, पर ध्यान देने वाली बात है कि हर साल धनतेरस पर परम्परा का निर्वाह करते हुए वे अपनी पुश्तैनी किराने की दुकान पर बैठते हैं! ग्राहकों को बाकायदा सामान भी देते हैं। 'केशव किराना स्टोर' नाम की इस दुकान को वे अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत का पहला ठिकाना मानते हैं। आशय यही कि आज उनके न होने से यदि इंदौर में भाजपा नेतृत्व विहीन है, तो उसके पीछे सिर्फ राजनीतिक कारण नहीं है! इलाके पर कैसे पकड़ बनाकर रखी जाती है और कैसे नौकरशाही पर नकेल डाली जाती है, ये उनसे मतभेद होते हुए भी सीखने वाली बात तो है!  
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Friday, December 9, 2016

इंदौर में कांग्रेस टुकड़ों में बंटकर बिखरने लगी

- हेमंत पाल 

   प्रदेश कांग्रेस के संगठन प्रभारी ने इंदौर शहर कांग्रेस की पूरी कार्यकारिणी भंग कर दी! अध्यक्ष प्रमोद टंडन के अलावा अब शहर कांग्रेस में कोई पदाधिकारी नहीं है। कारण बताया गया कि सारे पदाधिकारी निष्क्रिय थे, इसलिए उन्हें हटा दिया! जबकि, असल बात शाहनवाज खान को शहर कांग्रेस में पदाधिकारी बनाना था! इस नेता ने प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव पर टिकट बेचने का आरोप लगाते हुए उनका पुतला जलाया था! एक दिन पहले शाहनवाज खान की नियुक्ति रद्द की गई, दूसरे दिन प्रमोद टंडन की पूरी कार्यकारिणी ही भंग कर दी गई! अब तलवार प्रमोद टंडन पर लटकी है! वे 9 साल से अध्यक्ष हैं, पर अब कितने दिन और इस पद पर रह पाते हैं, ये तय नहीं है! वे लगातार दो कार्यकाल से पद पर हैं, पर पार्टी रसातल चली गई। इंदौर में कांग्रेस विधानसभा क्षेत्र के बजाए मोहल्लों में बंटी ज्यादा लगती है। बीते सालों में कांग्रेस न तो शहर में कोई आंदोलन खड़ा कर सकी और न भाजपा के सामने किसी चुनाव में चुनौती ही बन सकी है। इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि प्रदेश के हर बड़े नेता ने अपने समर्थकों की अलग फ़ौज खड़ी  कर रखी है! ये फ़ौज कांग्रेस की नहीं दिग्विजय सिंह की है, सिंधिया की है या कमलनाथ की! जब दिग्गज नेता ही एक नहीं हैं, तो शहर कांग्रेस में कैसे एकता होगी?      
 
  इंदौर की शहर कांग्रेस कमेटी में मनमर्जी से होने वाली नियुक्तियों से नाराज प्रदेश कांग्रेस ने इंदौर शहर की कार्यकारिणी भंग कर दी। प्रदेश संगठन प्रभारी महामंत्री चंद्रिका प्रसाद द्विवेदी ने शहर कांग्रेस अध्यक्ष प्रमोद टंडन को छोड़ 535 सदस्यों की कार्यकारिणी को एक आदेश से सप्ताहभर पहले हटा दिया। कहा गया कि अब नई सक्रिय कार्यकारिणी गठित की जाएगी। ये शायद पहली घटना है, जब किसी शहर की पूरी कार्यकारिणी एक झटके में भंग कर दी गई हो! आश्चर्य इस बात का कि हटाने को लेकर सभी 535 पदाधिकारियों पर एक ही आरोप लगा! ये बात किसी के गले नहीं उतर रही! जबकि, एक बड़ा कारण शाहनवाज खान को महामंत्री बनाया जाना है। कांग्रेस के नेता इकबाल खान और पार्षद रूबीना खान के बेटे शाहनवाज खान ने प्रदेश अध्यक्ष यादव पर ही टिकट बेचने का आरोप लगाते हुए उनका पुतला तक फूंका था। इसकी शिकायत प्रदेश अध्यक्ष को मिली थी! इसके बाद पहले उसे और बाद में सभी पदाधिकारियों को हटा दिया गया।  
   प्रमोद टंडन को हटाने की कोशिशे भी लंबे समय से चल रही है। वे 9 साल से शहर कांग्रेस के अध्यक्ष हैं! उनकी जगह नए नाम पर विचार के लिए कई बार कवायद हो चुकी है। पर, नतीजा कुछ नहीं निकला। प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव भी कई बार नए अध्यक्ष की बात कर चुके हैं, पर कर कुछ नहीं सके! हमेशा आश्वासन दिया गया कि नया शहर कांग्रेस अध्यक्ष जल्दी ही बनाया जाएगा। ऐसे दावे पहले भी कई बार किए जा चुके हैं। इस बार भी शहर को स्थाई अध्यक्ष मिलेगा, इसमें संशय है। नई नियुक्ति भी कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में ही होगी! फिलहाल किसी नेता को प्रभारी बनाया जा सकता है। 
   कांग्रेस के अपने विधान के मुताबिक शहर कांग्रेस की कमेटियों में 21 पद होते हैं। लेकिन, इंदौर में ये संख्या 535 हो गई थी! अपने समर्थकों को पदाधिकारी बनाने के लिए बड़े नेता शहर अध्यक्ष पर दबाव बनाते रहते हैं। पार्षद और विधानसभा चुनाव लड़ने वाले नेता भी अपने समर्थकों को कार्यकारिणी में पद दिलवाने के लिए बड़े नेताओं से दबाव बनवाते थे। यही कारण है कि इंदौर में कार्यकारिणी की संख्या बढ़ते-बढ़ते पांच सौ से ऊपर निकल गई थी! इनमें कुछ नियुक्तियों में तो प्रदेश कांग्रेस से अनुमति तक नहीं ली गई। 535 में से अधिकांश पदाधिकारी सिर्फ मोहल्ला राजनीति और होर्डिंग में फोटो लगवाने तक सीमित थे! मंत्री, महामंत्री, उपाध्यक्ष, प्रवक्ता बने कांग्रेस पदाधिकारी कभी न तो किसी आंदोलन का हिस्सा बनते और न पार्टी को सक्रिय बनाने की ही कोशिश करते थे! जिस बड़े नेता की सिफारिश से उनको पद मिलता, उसी के इंदौर आने पर ये नजर भी आते! टंडन की भंग कार्यकारिणी में ऐसे भी कई लोग थे, जिनके पास विधि, पिछड़ा वर्ग, झुग्गी-झोपड़ी प्रकोष्ठ के पद भी थे। हमेशा पदों की दौड़ में लगे रहने वाले ये नेता नए अध्यक्ष की नियुक्ति पर फिर उसकी परिक्रमा लगाने लगेंगे! 
  ये बात तो राजनीति के जानकारों को समझ में आ रही है कि इंदौर में भाजपा के ताकतवर होने का बड़ा कारण कांग्रेस का कमजोर होना है। 13 सालों में कांग्रेस के जो नेता विधानसभा चुनाव जीते, ये उनकी अपनी उपलब्धि है। इसमें पार्टी का कोई योगदान नहीं है। भाजपा उम्मीदवार के सामने आश्विन जोशी दो बार विधानसभा चुनाव जीते और और पिछले चुनाव में जीतू पटवारी ने राऊ जीता! लेकिन, इसमें कहीं शहर कांग्रेस का योगदान होगा, ऐसा नजर नहीं आया! अपने आका के इंदौर आगमन पर ही एयरपोर्ट पर भीड़ लगाने वाले पदाधिकारी कभी कांग्रेस के दफ्तर गाँधी भवन में भी दिखाई नहीं देते। यही कारण है कि बरसों से कांग्रेस प्रदेश की भाजपा सरकार के खिलाफ कोई बड़ा आंदोलन नहीं कर पाई!      
  इंदौर में कांग्रेस की राजनीति का अपना इतिहास रहा है। इंदौर में प्रकाशचंद्र सेठी, महेश जोशी और कृपाशंकर शुक्ला ने जिस तरह की राजनीति की, वो अभी तक कोई नहीं कर सका! इन नेताओं ने शहर में बरसों तक कांग्रेस को बाँधे रखा! प्रकाशचंद्र सेठी ने तो उज्जैन छोड़कर इंदौर की राजनीति की और केंद्र तक पहुंचे। अब तो महेश जोशी ने अपने आपको पूरी तरह राजनीति से अलग ही कर लिया! कृपाशंकर शुक्ला जरूर राजनीतिक और सरकारी आयोजनों में नजर आ जाते हैं। इनके मुख्यधारा की राजनीति से हटने और किसी दमदार बड़े नेता के न होने से शहर में कांग्रेस गुटों में बंट गई! जो नए नेता उभरे उन्होंने पार्टी को ताकत देने के बजाए घर की फ़ौज मारना शुरू कर दिया। आज इंदौर में कांग्रेस टुकड़ों में नजर आती है। कांग्रेस की राजनीतिक में सन्नाटा है। लगता है कांग्रेस हमेशा ही इस स्थिति को भोगने को अभिशप्त है! शहर में कोई नया नेतृत्व उभर नहीं पा रहा और जो बचे हैं वो भी विलुप्त होने लगे!  
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Thursday, December 8, 2016

'किसी को अंगदान के लिए राजी करना मुश्किल काम'


कमिश्नर संजय दुबे 

* हेमंत पाल 
  हर व्यक्ति समाज को कुछ न कुछ लौटना चाहता है, पर उसे मौका नहीं मिलता! कोई समय निकालकर विद्यादान करना चाहता है! कोई गरीबों के लिए आहारदान करना चाहता है! कोई मरने के बाद अंगदान करने का इच्च्छुक है! अभी तक लोगों के सामने इसके लिए आसान रास्ता नहीं था! हमारी कोशिश है कि ऐसे व्यक्तियों को मौका दिया जाए! नियम, कायदों को सुगम बनाकर प्रशासन ऐसे दान करने वालों की भावनाओं का सम्मान करना चाहता है!
    ये विचार है इंदौर कमिश्नर संजय दुबे के। उन्हें इंदौर में हो रहे अंगदान का प्रणेता माना जाता है! हाल ही में उन्हें नई दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में 'ऑर्गन डोनेशन' के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने सम्मानित किया। उन्होंने 14 महीने में 14 बार अंगदान के जरिए दूसरों जिंदगी देने का काम किया है। 'सुबह सवेरे' से बातचीत में संजय दुबे ने बताया कि समाज में दान की भावना नई नहीं है! लोग अपनी क्षमता से बहुत कुछ दान करना चाहते हैं, पर उन्हें आसान राह नहीं मिलती! यदि कोई घंटे-दो घंटे का समय निकालकर किसी स्कूल में बच्चों को पढ़ाना चाहता है, तो वो ऐसा नहीं कर पाता था! जब वो प्रिंसिपल के पास अपनी इच्छा बताने जाता, तो उसे जिला शिक्षा अधिकारी के पास भेज दिया जाता! वहाँ से बात भोपाल पहुँच जाती! कहने मतलब ये कि मामले के आसान निराकरण के बजाए वो फाइलों का हिस्सा बन जाता! ऐसा ही मामला अंगदान को लेकर भी था! जब मृत्यु प्रमाणपत्र तक मिलने में लोगों को महीनों लग जाते हैं, तो चंद घंटों में होने वाला अंगदान तो बेहद मुश्किल काम था! 
  अंगदान की प्रेरणा के बारे में उन्होंने बताया कि ये विचार मेरे मन में काफी पहले से था! व्यस्तता के कारण ये विचार आकार नहीं ले सका। दरअसल, कमिश्नर का काम समीक्षक का होता है। संभाग की प्रशासनिक व्यवस्थाओं की समीक्षा से मेरी जिम्मेदारी पूरी नहीं होती! इसलिए मैंने अंगदान, विद्यादान और आहारदान जैसे तीन काम हाथ में लिए! अब विद्यादान करने वाले व्यक्ति को ऑनलाइन आवेदन करना पड़ता है। औपचारिकता पूरी होने के बाद उसे परमिशन भी ऑनलाइन ही दी जाती है। ऐसा ही एक काम आहारदान है। यदि किसी के यहाँ पार्टी या शादी के खाने के बाद 10 से ज्यादा लोगों का खाना बच जाता है, तो एक एप्प पर सूचना दी जा सकती है! तत्काल एक वैन वहां से खाना लाकर जरूरतमंद गरीबों में बाटेंगी और उसके फोटो आहारदान करने वालों को भेजे जाते हैं! अब इस काम का दायरा इंदौर से बाहर तक बढ़ाए जाने की कोशिश है।  
 सबसे मुश्किल था अंगदान। क्योंकि, दुःख की घडी में परिजनों को मृतक के अंगदान के लिए राजी करना आसान नहीं होता! मृतक की आँखें, स्किन, किडनी या लीवर में कौनसा अंग काम का है, इसका फैसला भी तत्काल होता है! फिर समय सीमा में संबंधित हॉस्पिटल तक वो अंग पहुँचाना भी बड़ी चुनौती है। इस काम में एक्सपर्ट डॉक्टर्स, हॉस्पिटल, एम्स, संबंधित शहर के हॉस्पिटल, अंग प्रत्यारोपण के एक्सपर्ट्स, एयर ट्रैफिक, एम्बुलेंस और नेशनल ऑर्गन ट्रांसप्लांट एसोसिएशन (नोटा) समेत कई संस्थाओं को सक्रिय होना पड़ता हैं। ग्रीन कॉरिडोर के लिए प्रशासन और ट्रैफिक पुलिस का सहयोग होता है। एक पूरा सिस्टम इस काम में लग जाता है। ये मिशन तभी पूरा होता है, जब ये खबर मिलती है कि भेजा गया अंग प्रत्यारोपित कर दिया गया! 
  लोग अंगदान की तरफ क्यों प्रेरित हों? इस बारे में कमिश्नर का जवाब था कि ये बहुत बड़ी समाज सेवा है। मरने के कुछ घंटों बाद सारे अंग काम करना बंद कर देते हैं। लेकिन, यदि कोई अंग किसी मरीज को नया जीवन देने के काम आए, तो इससे बड़ा कोई काम नहीं है! सरकार भी ऐसे परिवारों की मदद करती है! जिस भी परिवार से अंगदान होता है, उस परिवार के दो सदस्यों को अभी 5 साल तक सरकार की तरफ से मेडिकल इंश्योरंस दिया जाता है। ये सुविधा जल्दी ही 10 साल के लिए की जा रही है। मृतक के मृत्यु प्रमाणपत्र में भी विलम्ब नहीं किया जाता। कमिश्नर संजय दुबे की कोशिश कि जल्दी ही इंदौर के हॉस्पिटल में अंग प्रत्यारोपण की सुविधा मिलने लगे! जिसका सबसे बड़ा फ़ायदा इंदौर को मिलेगा। उन्होंने कहा कि मुझे संतोष है कि समाज ने अंगदान जरुरत को बहुत जल्दी समझ लिया। अब लोग खुद अंगदान के लिए आगे आ रहे हैं। इंदौर से प्रेरित होकर अन्य शहरों में भी अंगदान का काम शुरू होने लगा है।       
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Wednesday, December 7, 2016

24 दिन टोल बंद रहे तो ट्रकों का एवरेज बढ़ा, भ्रष्टाचार भी रुका!

- हेमंत पाल 

 यदि सरकार टोल बंद कर दें तो देश के विकास की गति बढ़ेगी, ईंधन की खपत कम होगी, विदेशी मुद्रा बचेगी, समय बचेगा, आधुनिक राजमार्गों का सही उपयोग होगा और भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी! नोटबंदी के बाद देश के ट्रांसपोर्टरों का 500 करोड़ रुपए रोज का नुकसान हो रहा है! 40% हेवी व्हीकल्स खड़े हैं! 24 दिन तक टोल नाके बंद होने से ट्रको का एवरेज 3.5 से बढ़कर 5 हो गया ही! लेकिन, केंद्र को टोल नाकों का अड़ंगा समझ ही नहीं आ रहा! ट्रक वालों से इंट्री के नाम पर वसूली में देश में मध्यप्रदेश अव्वल है! उसके बाद झारखंड का नंबर है। यदि टोल नाके बंद कर दिए जाएं तो जीडीपी ग्रोथ 2% बढ़ सकती है!    
  ऑल इंडिया मोटर ट्रांसपोर्ट कांग्रेस की कोआर्डिनेशन कमिटी के चेयरमैन अमृतलाल मदान ने बताया कि देश के विकास की गति धीमी होने का एक बड़ा कारण टोल नाके हैं। उन्होंने कहा कि टोल वसूलने की प्रक्रिया को बदला जाए, उसे आसान बनाया जाए! क्योंकि, हर साल टोल नाकों पर करीब एक लाख करोड़ के डीज़ल का नुकसान होता है। सरकार टोल लेने की प्रक्रिया में बदलाव करें, ताकि टोल नाकों पर होने वाला डीज़ल और पेट्रोल का अपव्यय रोका जा सकें। नोट बंदी के कारण 24 दिन टोल बंद रहने से ट्रांसपोर्ट व्यवसाय में तेजी आई, पर बड़े नोटों के कारण 40% से ज्यादा वाहन बंद पड़े है। उन्होंने कहा कि टोल बंद रहने से ट्रकों का एवरेज भी डेढ़ किमी बढ़ गया!
    मदान ने कहा कि बड़े नोटों की कमी से कई ट्रक मालिकों का व्यापार पूरी तरह से ठप पड़ गया! क्योंकि, हम लोग हमारे ही पैसे बैंको से नहीं निकाल पा रहें है। खासकर जो सिंगल मोटर मालिक है उन्हें ज्यादा परेशानी है। नोट बंदी के दौरान ट्रक मालिकों को बैंको से एक हफ्ते में मात्र पचास हजार रूपए निकालने की सुविधा मिलती है। इतने में ट्रकों को हफ्तेभर चलाना असंभव है। अत्यधिक भीड़ होने के कारण कई बार तो इतने पैसे भी बैंकों से नहीं मिल पाते है। नोटबंदी का सबसे ज्यादा प्रभाव उन लोगों पर पड़ा है जिनका अधिकतर काम नकदी में होता है।
  देश के राजमार्गों पर पिछले साल तक 373 टोल थे, जो अब बढ़कर 423 हो गए हैं! केंद्र चाहे तो नेशनल परमिट की फीस बढाकर एक बार में टोल की वसूली कर सकती है, जिससे टोल पर ट्रकों की अनावश्यक रुकावट बंद होगी और ईंधन का नुकसान भी नहीं होगा! सरकार लाइट व्हीकल्स को टोल फ्री कर सकती है। साल 2014-15 में सरकार को टोल नाकों से 14157 करोड़ रुपए हुई थी, जो 2015-16 में बढ़कर करीब 17000 करोड़ रुपए हुई! ये वसूली और किसी भी तरह से सरकार कर सकती है, पर न जाने क्यों सरकार समझ ही नहीं रही!
  चैयरमेन मदान ने बताया कि आरटीओ एवं टैक्स बैरियर की संख्या भी कम की जाना चाहिए! मध्यप्रदेश के आगरा-मुंबई मार्ग के पलासनेर बैरियर के बाद हर ट्रक को तीन से चार बार रोका जाता है। ट्रकों के कागजात चेक करने के बाद टेक्स वाले रोकते हैं, फिर पुलिस वाले! हमारी मांग है कि जो ट्रांसपोर्टर टैक्स की चोरी करते हैं, उनको फाँसी पर टांग दो, पर ईमानदारों को तो बक्श दो! इंदौर से मुंबई या दिल्ली जाने वाले हर ट्रक पर कम से कम हज़ार रुपए की रिश्वत देना पड़ती है। उन्होंने ये भी बताया कि केंद्र मंत्री टोल नाकों के बारे में भाषणों में कुछ भी कहते हों, पर वे नाके बंद करने को लेकर सीरियस नहीं हैं। उल्लेखनीय है कि ऑल इंडिया मोटर ट्रांसपोर्ट कांग्रेस के देशभर में 93 लाख ट्रांसपोर्टर सदस्य हैं।
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Sunday, December 4, 2016

सच से किनारा करते 'रियलिटी शो'


- हेमंत पाल 

   एक वक़्त था जब टीवी के परदे पर मनोरंजन के नाम सीरियल, समाचार, फ़िल्मी गाने और सप्ताह में एक फिल्म दिखाई जाती थी। दर्शक इससे भी खुश थे! उन्हें फिल्म का एक सार्थक विकल्प मिल गया था। तब सीरियलों की कहानी लोगों की बातचीत का विषय हुआ करती थी! रामायण, महाभारत और हमलोग ऐसे सीरियल थे, जिन्होंने दर्शकों की दिनचर्या को प्रभावित किया था। सिनेमाघर की भीड़ घरों में सिमटने लगी थी! लेकिन, रात 10 बजे टीवी बंद हो जाता था, फिर भी दर्शक इस मनोरंजन से संतुष्ट थे। जबकि, आज चौबीसों घंटे टीवी मनोरंजन परोसता रहता है, पर दर्शक संतुष्ट नहीं हैं। चैनलों की भरमार हो गई और कार्यक्रमों की भी! लेकिन, स्तर इतना गिर गया कि परिवार साथ में बैठे तो आँख चुराना पड़ती है।  
  घर में घुसे बैठे मनोरंजन के इस आसान माध्यम में आज सबकुछ है! लेकिन, सबसे ख़ास नजर आते हैं रियलिटी शो! वास्तविकता को मनोरंजन की तरह दर्शाने वाले इन रियलिटी शो ने दर्शकों को सबसे ज्यादा प्रभावित किया। दर्शकों को लगता है कि वे परदे पर वही देख रहे हैं, जो घट रहा है। सवाल पैदा होता है कि रियलिटी शो में क्या सबकुछ रियल होता है? इस तरह के शो किस संदर्भ में रियल हैं? प्रेमचंद, शरदचंद, राहुल सांस्कृत्यायन जैसे लेखकों ने अपनी रचनाओं के जरिए समाज का जो चित्रण किया है, क्या ये टीवी के ये रियलिटी शो इसी तरह की वास्तविकता दिखाते हैं? सच तो ये है कि इस तरह के शो वास्तविकता नहीं दिखाते, बल्कि पैसे के लिए लालच का संदेश परोसते हैं। जब असल ज़िंदगी में ही कुछ भी रियल नहीं रह गया, तो इन रियलिटी शो में क्या रियल होगा? 
   'बिग बॉस' जैसे शो की लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण है छद्म सच्चाई! इस शो के अब तक दस सीजन हो चुके हैं। सवाल उठता है कि क्या वास्तव में वो सब रियल में हो रहा है, जो दिखाया जा रहा है? प्रतियोगियों की नजर आती कुंठा, रोज के आपसी झगडे, एक-दूसरे को मात देने की कोशिश और गुटबाजी ये सब क्या अपने आप हो रहा है? शायद नहीं, कहीं न कहीं इसके पीछे स्क्रिप्ट होती है। जो लिखित में भले न हो, पर दर्शकों को मनोरंजन परोसने के लिए उसे तैयार तो किया ही जाता है। ये सिर्फ एक रियलिटी शो का फार्मूला नहीं है। हर मनोरंजन चैनल पर ऐसे रियलिटी शो हमेशा चलते हैं। जितने भी ऐसे शो हैं, उन्हें एक फॉर्मेट के जरिए ही दिखाया जाता है! गाने और डांस के रियलिटी शो में तो आंसू बहाने वाले इमोशन से लगाकर एंकरिंग की कही गई एक-एक लाइन और हार-जीत तक तय होती है। शो के जजों की टिप्पणियाँ तक लिखी हुई होती है। यदि सबकुछ लिखित में ही होता है, तो कैसे माना जाए कि रियलिटी शो रियल होते हैं?    
  जो रियलिटी शो दिखाए जाते हैं, उनमें भद्दी गालियां, राजनीति, दूसरे को गिराने के हथकंडे दिखाकर दर्शक बटोरे जाते हैं। इस तरह चैनल की टीआरपी बढ़ाई जाती है। इन शो के पीछे एक पूरा बाजार काम करता रहता है। हुनरमंदों को अपना हुनर दिखाने का मंच मुहैया कराते ये रियलिटी शो तैयारियों के प्रशिक्षण का बाज़ार मेट्रो सिटी से गाँव तक फ़ैला रहे हैं। यहाँ रियलिटी शो के लिए संभावित प्रतियोगी तैयार किए जाते हैं। हमारे यहाँ रियलिटी शो का इतिहास भी करीब दो दशक से ज्यादा पुराना है। 3 दिसंबर 1993 को 'जी-टीवी' पर पहली बार अन्नू कपूर ने 'अंताक्षरी' शो शुरू किया, उसके 600 एपिसोड प्रसारित हुए। इसी चैनल पर 1995 में 'सारेगामा' आया। इस शो ने बॉलीवुड को कई मधुर गायक दिए। लेकिन, 2000 में आए अमिताभ बच्चन के शो 'कौन बनेगा करोडपति' ने सबकुछ बदल दिया। इसके बाद शो भी बदले, फॉर्मूले भी और कमाई के तरीके भी, पर रियलिटी नदारद हो गई!
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Saturday, December 3, 2016

शूटिंग मध्यप्रदेश में, पर परदे पर पहचान नदारद!

- हेमंत पाल 

  मध्यप्रदेश में फिल्मों की शूटिंग होना नई बात नहीं है! मांडू और जबलपुर के पास भेड़ाघाट शुरू से ही फिल्मकारों की पसंदीदा जगह रही है। पिछले कुछ सालों में इंदौर, भोपाल और महेश्वर में कई फिल्मों की शूटिंग हुई! लेकिन, मुद्दे की बात ये है कि किसी भी फिल्म में मध्यप्रदेश के इन शहरों को उनकी पहचान के साथ नहीं दर्शाया गया! कभी महेश्वर को बनारस बना दिया जाता है तो कभी मथुरा! प्रदेश के पर्यटन स्थलों का फिल्मकारों ने सांस्कृतिक शोषण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी! निर्देशक गुलजार ने जरूर 'किनारा' में मांडू को कहानी में पिरोकर उसी नाम की पहचान के साथ फिल्माया था! इसके अलावा सभी ने प्रदेश की खूबसूरती का शोषण ही किया! सरकार भी इसी में खुश हो लेती है कि हमारे यहाँ शूटिंग हुई, पर सवाल है कि इससे मध्यप्रदेश को क्या मिला?
 बॉलीवुड के नामचीन एक्टर अक्षय कुमार महेश्वर में शूटिंग की तैयारी कर रहे हैं! उन्होंने इसके लिए मुख्यमंत्री से भी बात की! निर्देशक आर. बाल्की की इस फिल्म के लिए अमिताभ और अक्षय महेश्वर और ओंकारेश्वर आएंगे! फिल्म के कई महत्वपूर्ण शॉट्स यहीं पर लिए जाने हैं। महेश्वर के घाट और महल में प्रमुखता से शूटिंग होगी। लेकिन, क्या महेश्वर को परदे पर उसकी पहचान के साथ दर्शाया जायेगा? साठ के दशक में मांडू में 'दिल दिया दर्द लिया' की शूटिंग हुई थी! तब से अब तक मध्यप्रदेश के वैभव को कई फिल्मों को फिल्माया गया, पर कभी शूटिंग स्थल वाले कस्बे या गाँव के नाम का उल्लेख नहीं किया गया! महेश्श्वर के घाटों को कभी बनारस के घाट बनाकर दिखाया जाता है, कभी मथुरा तो कभी यहाँ के महल को सम्राट अशोक का उड़िया साम्राज्य बनाकर! प्रकाश झा ने अपनी कई फिल्मों की शूटिंग भोपाल और आसपास की, लेकिन न तो कहीं मध्यप्रदेश नजर आया न भोपाल! इससे प्रदेश को सबसे बड़ा नुकसान ब्रांडिंग का होता है! फिल्मों में प्रदेश के पर्यटन स्थल दिखाए जाने से पर्यटक आकर्षित होते हैं! लेकिन, दुर्भाग्य है कि फिल्मकार प्रदेश सरकार को भरमाकर सुविधाएं तो बटोर लेते हैं, पर परदे पर यहाँ की प्राकृतिक संपदा और पुरा वैभव किसी और नाम से नजर आता है। इस बारे में सरकार को कोई सख्त रवैया अपनाना चाहिए, जिससे पर्यटन विकसित हो!           
  अनिल शर्मा की फिल्म 'सिंह साहब द ग्रेट' शूटिंग के समय मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने कहा था कि मध्यप्रदेश में जिन फिल्मों की शूटिंग होगी, उन्हें सुविधा देने के लिए नीति बनाई जाएगी। लेकिन, शायद 4 साल बाद भी इस विषय पर कोई बात नहीं हुई! सुविधा तो फिल्मकारों को आज भी मिल ही रही है, पर प्रदेश को इस सबसे क्या मिलता है? इस मामले में उत्तरप्रदेश की नीति काफी स्पष्ट है! वहाँ फिल्म की आधी से ज्यादा शूटिंग करने वाले फिल्मकारों को आर्थिक मदद दी जाती है और मनोरंजन कर में भी रियायत मिलती है! जबकि, मध्यप्रदेश के सामने सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि शूटिंग में जिस शहर, कस्बे या स्थान को फिल्माया जाए, फिल्म में उसे उसी रूप में दिखाया जाना जरुरी किया जाए! इसके लिए बकायदा करार किया जा सकता है या इसे पर्यटन नीति में शामिल किया जाए! यदि सरकार ये कर सकी तो फिल्म के परदे पर महेश्वर के घाट न तो बनारस बनेंगे और न यहाँ का किला मथुरा का किला बनेगा! शाहरुख़ खान और करीना की फिल्म 'अशोका' की शूटिंग भी महेश्वर में हुई थी, पर उड़ीसा के किसी शहर के नाम पर!    
    धर्मेंद्र के होम प्रोडक्शन की दो फिल्मों (यमला, पगला, दीवाना) के सीक्वल की शूटिंग यही हुई! पर, एक मैं भी 'महेश्वर' नाम नहीं आया! 'तेवर' में सोनाक्षी सिन्हा का चर्चित डांस यहीं घाट पर फिल्माया गया, पर फिल्म में वो मथुरा में नजर आया! महेश्वर में तेलुगु की मेगा बजट फिल्म 'गौतमीपुत्र शतकरणी' की भी शूटिंग हुई है। ये फिल्म दूसरी शताब्दी की पृष्ठभूमि पर बनी है। इसलिए महेश्वर के किले को उसी दौर के महलों की तरह तैयार किया गया था। तय है कि इस फिल्म में भी महेश्वर किसी और नाम से दिखेगा! संजय लीला भंसाली की फिल्म 'बाजीराव मस्तानी' के एक बड़े हिस्से की शूटिंग भी महेश्वर में हुई! सेना के साथ विश्राम के बाद घोड़े पर सवार होकर युद्ध के लिए निकल रहे बाजीराव पेशवा का भव्य सीन महेश्वर के घाट पर शूट किया गया था। समझा जा सकता है कि कहानी में ये सभी दृश्य महेश्वर के संदर्भ में तो होंगे नहीं! इसी तरह का सांस्कृतिक शोषण बरसों से 'भेड़ाघाट'  होता आया है। रितिक रोशन की फिल्म 'मोहन जोदाड़ो' की कुछ शूटिंग यहीं हुई, पर फिल्म पर कहीं भेड़ाघाट नहीं था। प्रकाश झा ने भी भोपाल में शूटिंग की, पर नाम बदलकर! राजकुमार कोहली की फिल्म 'जीने नहीं दूंगा' मांडू में फिल्माई गई, पर मांडू का नाम और वैभव सब नदारद था! ऐसा अब तक तो यही होता रहा है। यदि आगे भी   यही होता रहा तो मध्यप्रदेश के पर्यटन विभाग का ये स्लोगन चरितार्थ हो जाएगा 'एमपी अजब है, सबसे गज़ब है।'  
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Thursday, December 1, 2016

मध्यप्रदेश में विपक्ष की राजनीतिक शून्यता की तैरहवीं

- हेमंत पाल

  मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने अपने कार्यकाल के 11 साल पूरे कर लिए! कुल मिलाकर भाजपा को प्रदेश की सत्ता में 13 साल गए! इसी संदर्भ को पलटकर देखा जाए तो कांग्रेस को सत्ता से बाहर हुए भी 13 साल हो गए! प्रदेश में भाजपा सरकार के 13 साल पूरे होने के बाद भी एंटी-इनकंबेंसी जैसा कोई माहौल नहीं लग रहा! लोगों में नाराजी तो है, पर वो इतनी प्रबल नहीं कि सरकार बदल दे! जबकि, कांग्रेस विपक्ष की भूमिका में इतनी लचर कि अगले विधानसभा चुनाव में एंटी-इनकंबेंसी का खतरा उसे ज्यादा है। कांग्रेस के पास जनता के दिल में जगह बनाने के लिए कोई कार्यक्रम नहीं है। नकारात्मक राजनीति से पीड़ित कांग्रेस सिर्फ भाजपा पर आरोपों की बौछार करने के अलावा और कुछ नहीं कर रही! जिन सेनापतियों के भरोसे कांग्रेस को उद्धार उम्मीद है, वही आपस में उलझे हैं! ऐसे में लगता नहीं कि कांग्रेस के लिए 'मिशन-2018' का कोई मतलब रह गया है। जो पार्टी विपक्ष की भूमिका भी ईमानदारी से नहीं निभा पा रही हो, उसमें सत्ता पाने की चाह जगना बेहद मुश्किल है।      

  कांग्रेस के राजनीतिक खाते के पन्ने पलते जाएं, तो वो पराजय की इंट्रियों से भरा पड़ा है। चंद जीत के अलावा कांग्रेस के खाते में ऐसी कोई बड़ी उपलब्धि दर्ज नहीं है, जो पार्टी के सुखद भविष्य की उम्मीद जगाए! 2003 के विधानसभा चुनाव से अभी तक कांग्रेस प्रदेश में सिमटी पड़ी है। इस बीच पार्टी ने तीन प्रदेश अध्यक्ष बदले, पर कोई भी कांग्रेस को सहारा देकर खड़ा नहीं कर सका! पलटकर देखा जाए तो तीन विधानसभा और लोकसभा चुनाव में मध्य प्रदेश में कांग्रेस की पराजय अचानक नहीं हुई! इसकी पटकथा एक दशक पहले से लिखी जा रही थी! भाजपा ने कांग्रेस की उन सारी कमजोरियों को भांप लिया और वहीं चोट की! इबारत बताती है कि यदि मध्य प्रदेश में कांग्रेस की 29 में 12 और फिर सिर्फ 2 सीटों पर सिमट गई, तो इसके पीछे ‘मोदी लहर’ से भी कई बड़ी वजहें हैं। कांग्रेस के नजरिए से कहें तो ये उसकी 'कमजोरियां' हैं! वो इस हद तक पार्टी पर हावी हैं कि भविष्य में पार्टी के लिए उनसे निजात पाना आसान नहीं! आखिर वे क्या वजह हैं और कैसे वे कांग्रेस की विलुप्ति का सबब बनी? प्रदेश में कांग्रेस का दुर्भाग्य है कि उसके कई सेनापति मैदान में हैं। लेकिन, वे प्रतिद्वंदी के बजाए आपस में ज्यादा लड़ रहे हैं। इनकी आपसी खींचतान और खुद को ऊपर रखने की होड़ ने कांग्रेस के ताबूत में कील ठोंकने का ही काम किया! दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ और अजय सिंह की आपसी खींचतान ने पार्टी को मरणासन स्थिति तक पहुंचा दिया। क्योंकि, इन सारे दिग्गज नेताओं ने अपने अहम की पूर्ति के आगे पार्टी हितों को बौना कर दिया!
   मध्य प्रदेश में कांग्रेस के पास बरसों से मजबूत नेतृत्व की कमी दिख रही है। पार्टी हाईकमान ने हर बार नए गुट को प्रदेश की कमान सौंपकर हालात संभलने का प्रयोग किया! लेकिन, कोई भी पार्टी को मजबूती नहीं दे सका! जो भी प्रदेश अध्यक्ष बना उसने सबको साथ लेकर चलने के बजाए गुटबाजी को ज्यादा बढ़ावा दिया। सुरेश पचौरी, कांतिलाल भूरिया और अरुण यादव कांग्रेस के पराभव काल में पार्टी प्रमुख बने, लेकिन कोई भी कांग्रेस को संजीवनी नहीं दे सका! प्रदेश नेतृत्व ने हमेशा ही कार्यकर्ताओं में असंतोष बढ़ाने का ही काम किया! नतीजा ये हुआ कि अरुण यादव, अजय सिंह, सज्जन वर्मा, प्रेमचंद गुड्डू, मीनाक्षी नटराजन जैसे बड़े नेता आज न तो लोकसभा में हैं न विधानसभा में! कांतिलाल भूरिया भी पहली बार हारे फिर उपचुनाव में जीतकर सांसद बने!
  इसे कांग्रेस का दुर्भाग्य ही माना जाए कि जो भी पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बना, उसके मन में प्रदेश का मुखिया बनने की इच्छा प्रबल हो जाती है। 2008 के विधानसभा चुनाव में सुरेश पचौरी ने करीब 100 ब्राह्मणों को चुनाव मैदान में उतारने का घातक निर्णय लिया था। रणनीति के मुताबिक पचौरी की योजना थी कि यदि ये ब्राह्मण उम्मीदवार जीत गए तो कांग्रेस की सरकार बनने की स्थिति में उन्हें मुख्यमंत्री बनने से कोई नहीं रोक पाएगा! उनके बाद कांतिलाल भूरिया कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बने! लेकिन, उनके बहाने दिग्विजय की मंशा प्रदेश की राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत करना ही ज्यादा रही! कांग्रेस नेताओं के यही सपने हर चुनाव में पार्टी पर भारी पड़े!
  इसके विपरीत बिखरे और प्रयोगधर्मी कांग्रेस के सामने भाजपा का ‘एक-नेतृत्व’ फार्मूला नेतृत्व विहीन कांग्रेस पर भारी पड़ रहा है। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को पार्टी के हर छोटे-बड़े फैसले लेने की आजादी है। वे भाजपा के अघोषित सर्वेसर्वा हैं। फिर चाहे टिकट वितरण का मामला हो या सत्ता और संगठन में नियुक्तियों का! मुख्यमंत्री की मर्जी के बिना संगठन भी कोई फैसला नहीं करता! पार्टी अध्यक्ष भी अप्रत्यक्ष रूप से मुख्यमंत्री के अधीन होकर काम करते हैं। शिवराज सिंह के इन 11 सालों के कार्यकाल में कई बार ऐसे प्रसंग आए, जब लगा कि पार्टी का फैसला शिवराज पर भारी पड़ सकता है! लेकिन, हमेशा ही वे ताकतवर होकर उभरे, क्योंकि पार्टी को उनपर भरोसा है। भाजपा का 'एक-नेतृत्व' फार्मूला ही है, जो पूरी पार्टी को एक सूत्र में बांधने का काम करता है।
 शहडोल और नेपानगर उपचुनाव में कांग्रेस की हार के बाद कांग्रेस 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारी करती जरूर दिखाई दे रही है। संगठन में बड़े फेरबदल को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर भी मंथन का दौर जारी है। लगातार तीन विधानसभा चुनावों में हार झेल चुकी पार्टी इस बार 2 साल पहले सक्रिय होना चाहती है। कुछ बड़े चेहरों को आगे करके पार्टी अपना जनाधार बढ़ाने की रणनीति पर काम कर रही है। तैयारियां देखकर लग रहा है कि प्रदेश की कमान कमलनाथ को सौंपी जा सकती है। वे छिंदवाड़ा लोकसभा सीट से लगातार नौ बार जीतने सांसद हैं। एक बार छोड़कर उन्हें कोई टक्कर नहीं दे पाया! कांग्रेस 'मिशन-2018' की तैयारी में अभी से इसलिए भी जुट गई, कि इस बार वह कोई जोखिम नहीं उठाना चाहती! इसीलिए बड़े नेताओं को आगे करने की योजना पर काम किया जा रहा है। क्योंकि, प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता लगातार बढ़ी है!इसलिए कि कांग्रेस में उन्हें टक्कर देने वाला कोई नेता नहीं है।
  मध्य प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस के बीच वोटों की खाई हर चुनाव में चौड़ी होती रही! 2009 में भाजपा को 43.45 फीसदी वोट मिले थे! 2014 में इसमें 10.55 फीसदी की वृद्धि हुई! भाजपा को इस लोकसभा चुनाव में 54 फीसदी मत मिले, जबकि कांग्रेस को 2009 में 40.14 फीसदी मत मिले थे जो 1.10 फीसदी घटकर 39.04 रह गया। बसपा, अन्य और निर्दलीय उम्मीदवारों को 6.06 फीसदी वोट मिले। नई बनी आम आदमी पार्टी को 'नोटा' से भी कम वोट मिले। प्रदेश में नोटा (नन ऑफ द अबव) में कुल 1.3 यानी 3, 91, 797 वोट पड़े, वहीं आप को 1.2 फीसदी यानी 3,49,472 वोट मिले। कांग्रेस अच्छी तरह जानती है कि भाजपा को मिले 10 फीसदी वोटों के अंतर को पाटना उसके लिए नामुमकिन सा है। यदि मतदाताओं को फिर से रिझाना है तो कांग्रेस को अच्छे नेतृत्व, लंबे समय और संसाधनों की जरूरत होगी! लेकिन, अभी तक इस दिशा में गंभीरता दिखाई नहीं देती। यदि कांग्रेस इन कमजोरियों से नहीं उबर पाती तो वह गुजरात की तरह ही मध्य प्रदेश को भाजपा का अभेद्य किला बनने से नहीं रोक सकेगी!
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Monday, November 28, 2016

हिंदी फिल्मों पर भारी पड़ता भाषाई सिनेमा


- हेमंत पाल 

  हिंदी सिनेमा के दर्शकों के लिए फिल्म का मतलब सिर्फ हिंदी में बनने वाली फ़िल्में होता है। जब भी कहीं दुनिया में भारतीय फिल्मों के दबदबे की बात होती है, जिस संदर्भ में फिल्मों का जिक्र होता है, वो हिंदी की फ़िल्में होती है। जबकि, असलियत ये है कि धीरे-धीरे हिंदी फिल्मों का तिलस्म टूटने लगा है। अभी तक हिंदी के अलावा दक्षिण भारतीय भाषा की फिल्मों का बाजार था! लेकिन, अब मराठी, पंजाबी, बांग्ला, भोजपुरी और अन्य भाषाई फिल्मों का नया बाजार बनने लगा है। जिस तरह मराठी, भोजपुरी और पंजाबी फ़िल्में बन रही है और बिजनेस कर रही है, हिंदी फिल्मों के दर्शक घटने लगी। मराठी की सबसे सफल मानी जाने वाली फिल्म 'सैराट' को हिंदी में बनाया जा रहा है। हिंदी में बनी फिल्म ‘एम एस धोनी : द अनटोल्ड स्टोरी‘ को मराठी में डब किया गया। फिल्म के निर्देशक नीरज पांडे का कहना है कि क्षेत्रीय सिनेमा जिस तरह से फलफूल रहा है, ये प्रयोग करना जरुरी हो गया। 

  हिंदी सिनेमा की जन्मस्थली कहे जाने वाले मुंबई में मराठी सिनेमा तेजी से अपनी जगह बनाता जा रहा है। इस दौर में ऐसी कई फिल्में आई, जिन्होंने मराठी सिनेमा की पहचान और उसके बारे में सोच बदल दिया। 2013 में आई 'फंड्री' 2014 में 'एलिजाबेथ एकादशी' और 2015 में 'कत्यार कालजात घुसली' के बाद इस साल आई 'सैराट' ने तो सारा माहौल ही बदल दिया। 'सैराट' अब तक की सबसे ज्यादा कमाई वाली मराठी फिल्म साबित हुई है। 4 करोड़ में बनी इस फिल्म ने करीब 100 करोड़ का बिजनेस किया है। बदतर हालत में पहुंच चुके मराठी सिनेमा के लिए ये बेहद संतोष की बात है। कुछ साल पहले तक मराठी फिल्मों का मतलब सिर्फ दादा कोंडके स्टाइल वाली द्विअर्थी फ़िल्में थी। लेकिन, अब मराठी फिल्मकारों को भी समझ आ गया कि दर्शक हर नए प्रयोग के पक्षधर होते हैं। अब इन फिल्मों को पसंद करने वाले मराठी भाषी ही नहीं रहे, इन्हें दूसरी भाषा और प्रांतों के दर्शक भी मिल गए। ये प्रयोग वैसा ही है जैसा हॉलीवुड की फिल्मों का हिंदी या भोजपुरी डब करके प्रदर्शित किया जाना। 'उड़ता पंजाब' भी हिंदी के साथ ही पंजाबी में बनी। 
  देश में हिंदी और दक्षिण भारतीय भाषा की फिल्मों की तरह बांग्ला सिनेमा का इतिहास भी बहुत पुराना है। संसाधन की कमी के बावजूद वहां के फिल्मकारों ने अपनी संस्कृति को सिनेमा से जोड़कर पकड़ बनाई है। उन्होंने बांग्ला साहित्य  कहानियां चुनी और कलात्मक और उद्देश्यपूर्ण फिल्में बनाई। ऋत्विक घटक, सत्यजीत राय, मृणाल सेन, तपन सिन्हा से लेकर बुद्धदेव दासगुप्ता, गौतम घोष उत्पलेंदु चक्रवर्ती, अपर्णा सेन ने कई फिल्में बनाकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय सिनेमा पहचान बनाई। आज बांग्ला के बाद मलयालम में ही यथार्थवादी सिनेमा जिंदा है। लेकिन, फिल्मों की बढ़ती लागत नई पीढ़ी की बदलती रूचि ने फार्मूला फिल्मों की मांग बढ़ा दी है। ऐसे में हिंदी और तमिल, तेलगु के अलावा क्षेत्रीय सिनेमा में भी नए प्रयोग शुरू हो गए। 
  आज भले ही फिल्मों का मतलब हिंदी सिनेमा समझा जाता हो, पर पिछले साल की सबसे ज्यादा कमाई वाली फिल्म 'बाहुबली' ही थी। ये तेलुगू और तमिल में बनी, फिर उसे हिंदी के अलावा मलयालम तथा फ्रेंच में डब किया गया। तकनीक के साथ संसाधनों की बात जाए तो तमिल-तेलगु के फिल्मकार किसी भी मामले में हिंदी के फिल्मकारों से कम नहीं हैं। हिंदी की फिल्मों की तरह इन फिल्मों की शूटिंग भी विदेशों में होती है। आज टीवी के अधिकांश चैनलों पर दिखने वाली फ़िल्में दक्षिण भारतीय ही हैं।देखा जाए तो क्षेत्रीय सिनेमा जिस तरह से जमीन पकड़ रहा है, ये हिंदी सिनेमा के लिए खतरा है। जब क्षेत्रीय दर्शकों को जो मनोरंजन अपनी भाषा में मिलेगा तो वो हिंदी फिल्मों की तरफ क्यों रुख करेगा? भाषाई फिल्मों का नया बाजार बनने का एक सबूत ये भी है कि प्रियंका चोपड़ा जैसी बड़ी एक्ट्रेस ने अपना प्रोडक्शन हाउस खोलकर पंजाबी फ़िल्में बनाना शुरू की, न कि हिंदी! क्योंकि, कनाडा में बसे भारतीयों में यही फ़िल्में पसंद की जाती हैं। ऐसे में हिंदी के फिल्मकारों की नींद उड़ जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए!
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Thursday, November 24, 2016

'नोटबंदी' से बेअसर रही 'वोटबंदी' की चुनावी राजनीति

- हेमंत पाल 

   शहडोल की लोकसभा और नेपानगर की विधानसभा सीटें जीतकर भाजपा ने ये संदेश दे दिया कि नोटबंदी की नाराजी और सर्जिकल स्ट्राइक पर सरकार की पीठ थपथपाने का असर चुनाव पर।  नोटबंदी के बावजूद मतदाताओं ने उनके प्रति भरोसा बनाये बनाए रखा! बैंक के सामने नोट बदलाने की लाइन में खड़े लोगों तात्कालिक नाराजी को सरकार के खिलाफ आक्रोश समझना गलती है। नेपानगर में भाजपा को उम्मीदवार के साथ जुडी सहानुभूति का फ़ायदा जरूर मिला! लेकिन, शहडोल में भाजपा की जीत के साथ कई किन्तु, परंतु हैं! सबसे बड़ी कमजोरी तो कांग्रेस की मानी जाएगी कि उसने जीत की कोशिश से पहले ही हार मान ली! उपचुनाव में दोनों सीटों पर भाजपा की जीत से कांग्रेस का ग्राफ गिरा है। सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव के खाते में जाएगा, जो अपने घर की नेपानगर सीट नहीं बचा सके! कांग्रेस के क्षत्रपों की आपसी तनातनी ने पार्टी को इस हालत में ला दिया है कि उसमें सर उठाने की भी गैरत नहीं बची!    
  
    इस उपचुनाव की घोषणा के बाद नोटबंदी से जिस तरह के हालात बने थे, ये समझा जाने लगा था कि जनता का आक्रोश भाजपा को ले डूबेगा! नोट बदलाने के लिए बैंक के सामने लगी लाइनों में खड़े लोग सरकार के इस फैसले से बनी स्थिति का आंकलन करने लगे हैं! हर व्यक्ति अर्थशास्त्री की तरह टिप्पणी करने लगा! कालेधन और नकली नोटों के खिलाफ अचानक हुए केंद्र सरकार के इस फैसले ने रातों-रात लोगों की दिनचर्या और प्राथमिकताएं बदल दी थी! इसी नजरिए से ये आकलन किया जाने लगा था कि जो लोग लाइन में खड़े हैं, उनको यदि मतदान का मौका मिला, तो नतीजा सरकार के खिलाफ जाएगा। शहडोल और नेपानगर के संभावित नतीजों को भी इसी प्रतिक्रिया से देखा जा रहा था! लेकिन, मतदाताओं ने नतीजों ने सारे अनुमान बदल दिए। इन नतीजों को सहजता से नहीं लिया जा सकता! क्योंकि, जब लोग व्यक्तिगत रूप में सरकार के फैसले से परेशान हों, तो तय है कि वे सत्ताधारी दल की सरकार को सबक सिखाने का मौका भी नहीं छोड़ेंगे! किन्तु, ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि लोग तात्कालिक परेशानी के बावजूद देशहित समझ रहे हैं! शहडोल और नेपानगर दोनों सीटों के मतदाता आधुनिक विचारधारा से कटे हैं, पर नोटबंदी बाद सुधरने वाले हालातों से वाकिफ भी हैं।
  जिन लोगों ने ये अनुमान लगाया था कि नोटबंदी से होने वाली परेशानी को लोग उपचुनाव के नतीजों से जाहिर करेंगे, वे गलत थे! देश का मतदाता इतना नासमझ नहीं कि वह पीओके पर सर्जिकल स्ट्राइक से खुश हो जाए और नोटबंदी से उसकी नाराजी सामने आ जाए। वैसे भी केंद्र सरकार के फैसलों की सजा मतदाता स्थानीय नेतृत्व को नहीं देता! ये बात सही है कि सरकार के अचानक बड़े नोट बंद करने के फैसले से लोग निजी तौर पर परेशान तो हुए, पर उन्हें संतोष था कि सरकार के इस कदम से भ्रष्ट लोग बेनकाब हो जाएंगे! उनका करोड़ों रुपया रद्दी हो जाएगा! यही वो मानसिकता थी, जिसने लोगों को नोटबंदी के समर्थन में सोचने लिए मजबूर किया। प्रदेश की दो सीटों के उपचुनाव के नतीजों को इस प्रतिक्रिया से देखा जाए तो जो फैसला आया है, वो सही लगेगा। फिर एक बड़ा कारण ये भी है कि लोग मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के कामकाज से नाराज नहीं है। वे नहीं चाहेंगे कि विपरीत नतीजे देकर प्रदेश सरकार कमजोर किया जाए।  
  इसे कोई कारण माने या एंटी इनकंबेंसी का असर कि शहडोल लोकसभा उपचुनाव में भाजपा की का अंतर घटकर एक चौथाई रह गया! जबकि, नेपानगर में सहानुभूति कारण ये अंतर बढ़कर दोगुना हो गया। शहडोल लोकसभा सीट आम चुनाव में भाजपा ने 2 लाख 41 हजार वोट से जीती थी। जबकि, उपचुनाव में जीत का अंतर 60 हजार रह गया। नेपानगर में जरूर 22 हजार 178 वोटों का अंतर 42,198 हो गया है। भाजपा की सफलता का एक बड़ा श्रेय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की सक्रियता और पार्टी की रणनीति को भी दिया जाना चाहिए। जैसा कि देखा गया है, शिवराज सिंह ने अपने कार्यकाल में कभी किसी चुनाव को कमतर नहीं आंका! झाबुआ लोकसभा उपचुनाव में मिले झटके के बाद तो वे कुछ ज्यादा ही सजग हो गए हैं! इस बात से इंकार नहीं कि शहडोल में भाजपा स्थिति अच्छी नहीं थी! भाजपा उम्मीदवार ज्ञानसिंह तो चुनाव लड़ने के मूड में ही नहीं थी, फिर भी एक रणनीति  उन्हें टिकट दिया गया। मुख्यमंत्री ने सभी दावेदारों को किनारे करके ज्ञानसिंह को मंत्रिमंडल से उठाकर चुनाव मैदान में उतारा। वह भी उस दशा में जबकि ज्ञानसिंह स्वयंं भी चुनाव में उतरना नहीं चाहते थे। इसके बाद मुख्यमंत्री ने चुनावी जमावट शुरू की। इसलिए ज्ञानसिंह की जीत को चमत्कार माना जा रहा है। शहडोल उपचुनाव में पुष्पराजगढ़ के निवासी को हराकर उमरिया इलाके के उम्मीदवार को जीत मिली। भाजपा ने इस उपचुनाव को पूरी दमदारी से लड़ा।
  इस चुनाव का सबसे बड़ा प्रभाव ये हुआ कि राजघराने से जुडी कांग्रेस उम्मीदवार हिमाद्री सिंह का राजनीतिक भविष्य उदय होने के पहले अस्त हो गया। शहडोल और नेपानगर उपचुनाव में भाजपा पर से जीत की खुमारी तो जल्दी उतर जाएगी, पर कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव के लिए ये चुनाव लिटमस टेस्ट साबित हो गए। लगता नहीं कि अब वे ज्यादा दिन अपनी डांवाडोल कुर्सी बचा पाएंगे। इसके लिए भी जिम्मेदार भी कांग्रेस के वे क्षत्रप हैं, जिन्हें पार्टी का कर्णधार माना जा रहा है। ये हार कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया और अरुण यादव के ही खाते में दर्ज होगी। किसी ने भी चुनाव को गंभीरता से नहीं लिया। प्रचार की भी औपचारिकता ही निभाई और अंतिम दिनों में तो क्षेत्र से ही गायब हो गए। भाजपा के ही पूर्व विधायक सुदामा सिंह के तेवर अपनी ही पार्टी के खिलाफ थे। अनूपपुर से भाजपा विधायक रामलाल रौतेल भी नाराज थे!  जबकि, उमरिया सीट से भी भाजपा के उम्मीदवार ज्ञान सिंह की स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा रही थी। सबसे ज्यादा चुनौती पुष्पराजगढ़ में थी और माना जा रहा था कि कांग्रेस के लिए यहां एक तरफा वोट पड़ेंगे। लेकिन, कांग्रेस प्रतिद्वंदी के गढ़ में सेंध लगाने में कामयाब नहीं हुई! इन नतीजों से कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव की मुश्किलें अब बढ़ सकती हैं। पार्टी में बढ़ते असंतोष को ठंडा करने के लिए अब पार्टी को कोई गंभीर फैसला लेना पड़ सकता है। क्योंकि, नोटबंदी मामले में भी कांग्रेस लोगों की नाराजी को केश नहीं कर सकी।
  इस उपचुनाव में मतदाता का रुझान शुरु से ही समझ नहीं आ रहा था! सबसे ज्यादा असमंजस भाजपा खेमे में था। नोटबंदी के केंद्र के फैसले ने इस असमंजस को और बढ़ा दिया था, जिसे लेकर भाजपा पूरे समय ठीक करने में लगी रही। उसी का नतीजा है कि परिणाम भाजपा के पक्ष में गया। वहीं मतदाता का मूड कांग्रेस के पक्ष में दिख तो रहा था, पर पार्टी के ही जिम्मेदार लोग ही कन्नी काटते रहे। शहडोल में भाजपा की जीत के कई मायने हैं। चुनाव नतीजों से पहले तक किसी को उम्मीद नहीं थी कि भाजपा उम्मीदवार ज्ञानसिंह जीत जाएंगे। लेकिन, नतीजा आते ही सभी सर्वे और आंकलन फेल हो गए। मतदान के पहले तक शहडोल क्षेत्र में ज्ञानसिंह के खिलाफ चल रही हवा और मतदाताओं के रूझान भाजपा के पक्ष में नहीं थे। ऐसा क्या हुआ कि भाजपा ने कांग्रेस को चित कर दिया। इसकासिर्फ कारण है कि ज्ञानसिंह के राजनीतिक अनुभव के सामने कांग्रेस उम्मीदवार हिमाद्री सिंह नया चेहरा थी, जिसे लोग ठीक से पहचानते भी नहीं थे। जबकि, नेपानगर विधानसभा सीट पर भाजपा उम्मीदवार मंजू दादू की जीत सहानुभूति खाते के खाते में गई! मंजू ने कांग्रेस उम्मीदवार अंतर सिंह बर्डे को 40 हजार से भी ज्यादा अंतर से हराया। यह सीट उनके पिता राजेंद्र सिंह दादू के निधन की वजह से खाली हुई थी। बुरहानपुर जिले के तहत आने वाली इस सीट पर भाजपा की जीत तय ही मानी जा रही थी।
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Sunday, November 20, 2016

एक हिट के बाद कहाँ गुम हुए सितारे?


हेमंत पाल 

  सिनेमा के परदे पर हर शुक्रवार एक नया सितारा जन्म लेता है। लेकिन, कुछ सितारे परदे की चमक बनते हैं तो कुछ टिमटिमाकर लुप्त हो जाते हैं। सिनेमा इतिहास में ऐसे नामों को कमी नहीं है, जो पहली फिल्म आते ही रातों रात स्टार बन गए! सफलता ने उन्हें आसमान पर पहुंचा दिया था! लेकिन, उनकी किस्मत में शायद हमेशा चमकना नहीं लिखा था। बॉलीवुड के 'वन फिल्म वंडर' सितारे आज भी आ रहे हैं! पीछे पलटकर देखें तो ऐसे कलाकारों की कमी। जब तक सिनेमा की ये दुनिया है स्टार का जान लेना और लुप्त होने का क्रम जारी रहेगा।   
  सलमान खान जैसे बड़े कलाकार के साथ ‘मैंने प्यार किया’ में नजर आईं भाग्यश्री को अपनी पहली ही फिल्म से बहुत लोकप्रियता मिली। पहली ही फिल्म से भाग्यश्री ने दर्शकों के दिलों पर राज कर लिया। लेकिन, सफलता का नशा जल्दी उतर गया। उन्होंने शादी कर ली और अपने आप ही इंडस्ट्री से दूर हो गई! ऐसी ही एक्ट्रेस मंदाकिनी का जन्म हुआ राजकपूर की फिल्म 'राम तेरी गंगा मैली' से! उनकी पहली फिल्म ने मंदाकिनी को आसमान पर पहुंचा दिया! लेकिन, बाद की फिल्मों में कमाल नहीं कर सकीं। अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम से रिश्तों के लेकर मंदाकिनी का करियर भी विवादस्पद रहा। ऐसा ही एक नाम है भूमिका चावला! 'तेरे नाम' में सलमान के साथ परदे पर उतरी इस साधारण चेहरे वाली हीरोइन ने दर्शकों दीवाना बना दिया था। लेकिन, भूमिका ने जल्द ही दक्षिण की और रुख कर लिया और बॉलीवुड से दूरी बना ली। सालों बाद वे एमएस धोनी पर बनी बायोपिक में धोनी की बहन के रोल में नजर आईं!
  याद किया जाए तो ऐसे सैकड़ों नाम सामने आएंगे, जिन्हें दर्शकों ने पहले तो सिर पर बैठाया, पर फिर ऐसा उतार फैंका कि पलटकर देखा भी नहीं! किम शर्मा भी ऐसे ही चर्चित नामों में से एक थी। किम ने ‘डर’ और ‘मोहब्बतें’ जैसी हिट फ़िल्में दी! आज यह एक्ट्रेस कहाँ है, किसी को पता नहीं! पिछले दशक में ऐसा सबसे चर्चित नाम रहा ग्रेसी सिंह! आमिर खान के साथ 'लगान' से धमाकेदार इंट्री करने वाली ग्रेसी उसके बाद से ही लुप्त हो गई! वे 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' में भी थीं! यह फिल्म हिट तो हुई, लेकिन ग्रेसी की चर्चा नहीं हुई। वे 'अरमान और मुस्कान' में नजर जरूर आईं, पर फिल्में ही बेअसर रही। सलमान खान के साथ 'सनम बेवफा' में दिखाई दी चांदनी भी लुप्त होने वाले नामों में से एक है। उनके खाते में 'सनम बेवफा' पहली और आखिरी फिल्म साबित हुई। सलमान के ही साथ स्नेहा उलाल का भी 'लकी' में उदय हुआ था। उसके चेहरे पर ऐश्वर्या की झलक देखी गई थी! बाद में हॉरर फिल्म 'क्लिक' में भी उन्होंने काम किया। लेकिन, स्नेहा अपने करियर को आगे नहीं बढ़ा पाई! 
  महेश भट्ट की बेटी पूजा भट्ट ने 'डैडी' से अपनी शुरुआत की। पूजा 'दिल है कि मानता नहीं' में आमिर खान के साथ नज़र आई! इसके बाद संजय दत्त के साथ 'सड़क' में उनकी अदाकारी की तारीफ हुई। लेकिन, वे निर्देशक बन गईं और ऐक्टिंग छोड़ दी। प्रसिद्द फिल्मकार शेखर कपूर की पत्नी सुचित्रा कृष्णमूर्ति ने भी शुरुवाती लोकप्रियता के बाद पहचान खो दी। टीवी की दुनिया से आईं सुचित्रा ने के खाते में बहुत ज्यादा फिल्में नहीं हैं। शिल्पा शेट्टी बहन शमिता शेट्टी भी अपनी बहन की तरह बॉलीवुड पर छा जाना चाहती थीं। लेकिन, शमिता का जादू नहीं चला! ऐसा ही काजोल की बहन तनीषा मुखर्जी के साथ हुआ! ममता कुलकर्णी ने क्रांतिवीर, करन अर्जुन और सबसे बड़ा खिलाड़ी जैसी हिट फिल्में दीं। लेकिन, बाद में वे विवादों में आ गई। आयशा जुल्का का नाम भी दर्शक भूले नहीं है। खिलाड़ी, जो जीता वहीं सिकंदर जैसी सुपरहिट फिल्मों में काम किया। लेकिन वे अपने करियर को सही दिशा देने में नाकाम रहीं। दीपा शाही ने फिल्म 'हम' में भाभी की भूमिका निभाई। इसके बाद फिल्म 'माया मेमसाहब' में शाहरुख खान के साथ बोल्ड सीन देकर सबको चौंका दिया था, आज लोग उनका नाम तक भूल चुके हैं। अमिताभ के साथ 'हम' के लोकप्रिय गाने जुम्मा चुम्मा दे दे पर थिरकने वाली किमी काटकर भी इस फिल्म की सफलता को भुनाने में असफल रही। 
  ये स्थिति सिर्फ हीरोइनों के साथ ही नहीं रही, कई हीरो भी  चमक दिखाकर गायब हुए हैं। राहुल रॉय की पहली फ़िल्म ‘आशिकी’ ने कामयाबी के रिकार्ड तोड़ दिए थे। लेकिन, यह अभिनेता आज गुमनामी की दुनिया में कहीं खो गए। राहुल 'बिग बॉस' के पहले सीजन के भी विजेता भी रहे! अपने वक़्त के सुपरहिट हीरो राजेंद्र कुमार के बेटे कुमार गौरव ने जब 'लव स्टोरी' से सेलुलाइड की दुनिया में कदम रखा तो रातों-रात स्टार बन गए। उन्हें भविष्य का राजेश खन्ना कहा गया, लेकिन कुमार गौरव इस सफलता को बचाकर नहीं रख पाए और इंडस्ट्री से गायब हो गए। ऐसा ही एक एक्टर दीपक तिजोरी  जिसने आशिकी, कभी हां कभी ना, जो जीता वहीं सिकंदर जैसी फिल्मों से नाम कमाया। तिजोरी के निगेटिव रोल की भी सराहना की गई। आज दीपक तिजोरी का कोई अता-पता नहीं है। सुभाष घई खोज कहे जाने वाले विवेक मुशरान ने 'सौदागर' जैसी हिट फिल्म में काम किया। लेकिन, बाद की फिल्में सफल नहीं रही। उन्होंने छोटे पर्दे का भी रुख किया। मणिरत्नम की फिल्म 'रोजा' और 'बांबे' जैसी फिल्म में काम कर चुके अभिनेता अरविंद स्वामी तो फिल्मों से ही दूर हो गए। ये सूची पूरी नहीं हुई, जितने शुक्रवार आते हैं, एक नया नाम जुड़ता जाता है।  
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Friday, November 18, 2016

चुनी महिलाओं की पार्षदी पर पतियों का अतिक्रमण

- हेमंत पाल 

   नगर निगमों और नगर पालिकाओं में पार्षदों के दबदबे से ज्यादा ख़बरें अब 'पार्षद पतियों' की सुनाई देती हैं! अधिकारियों को धमकाने, अनर्गल काम के लिए दबाव बनाने, सरकारी आवंटित राशि में हिस्सेदारी करने जैसे कई मामलों में पार्षद पतियों का दखल बढ़ता जा रहा है। लेकिन, सरकार इस सबसे बेअसर है! त्रिस्तरीय पंचायती राज को लेकर नियम बना दिए, पर स्वायत्तशासी संस्थाओं में इस मुद्दे पर नकेल नहीं डाली गई! पत्नियों को हथियार बनाकर अपनी राजनीतिक इच्छा पूरी करने वाले इन 'पार्षद पतियों' का दखल इतना ज्यादा है कि वे परिषद् की बैठकों में भी अधिकारियों पर दबाव बनाने लगे हैं! ऐसे में उन मतदाताओं का क्या दोष जिन्होंने एक महिला को अपना प्रतिनिधि चुना था? जीतने के बाद वो महिला प्रतिनिधि तो कहीं नजर नहीं आई, अलबत्ता उसका पति मतदाताओं के गले पड़ गया! इससे महिला आरक्षण की मूल भावना बुरी तरह प्रभावित हुई है। मकसद था कि इससे महिलाओं में नेतृत्व करने और निर्णय लेने की क्षमता का विकास होगा, पर 'पतियों' की राजनीतिक इच्छा ने उसपर पानी फेर दिया! अब वो वक़्त आ गया है, जब सरकार को 'पार्षद पतियों' को लेकर कोई गंभीर और असरदार फैसला करना होगा!
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-  भोपाल नगर निगम के अतिक्रमण दस्ते के साथ बदसलूकी करने वाले पार्षद पति समेत दो दर्जन लोगों के खिलाफ पुलिस ने शासकीय कार्य में बाधा पहुंचाने और गाली-गलौज करने समेत विभिन्न धाराओं के तहत प्रकरण दर्ज किया।
- विदिशा के सिविल लाइंस थाना पुलिस ने एक पार्षद पति के खिलाफ एक सॉफ्टवेयर कंपनी में कार्यरत युवती की शिकायत पर छेड़छाड़ और रास्ता रोकने का प्रकरण दर्ज किया है। युवती भोपाल में एक सॉफ्टवेयर कंपनी में कार्यरत है। पार्षद पति के खिलाफ छेड़छाड़ का प्रकरण दर्ज किया गया।
- इंदौर में महिला पार्षद के पति ने स्ट्रीट लाइट का मेंटेनस करने वाली कंपनी के कर्मचारी के साथ मारपीट की! स्ट्रीट लाइट सुधारने से इनकार करने पर पार्षद पति ने कर्मचारी को थप्पड़ मार दिया। विवाद बढ़ने पर कंपनी की गाड़ी भी वहीं रुकवा ली।
- भोपाल नगर निगम महापौर ने परिषद की बैठकों में पार्षद पतियों के भाग लेने पर रोक लगा दी! महापौर ने वार्डों के निरीक्षण के दौरान पाया कि अधिकांश महिला पार्षदों के पति इन बैठकों में शामिल हुए।
- इंदौर की सांसद और लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने महिला सरपंचों के लिए बुलाई बैठक से उनके पतियों को बाहर कर दिया। महाजन ने इंदौर में जिस बुराई पर नाखुशी जताई, वो पूरे प्रदेश और देश में फैली है।
- इंदौर के कई समाजसेवियों ने पार्षद पतियों के बढ़ते दखल पर आपत्ति जताते हुए, उनको मर्यादा में रहने की हिदायत दी है। उन्होंने ये भी कहा कि ये उन महिला प्रतिनिधियों का अपमान है, जिन्हें जनता ने वोट देकर चुना है।
   ये वो चंद घटनाएं हैं, जो प्रदेश में पार्षद पतियों के बढ़ते दखल और महिला पार्षद के अधिकारों में अतिक्रमण का संकेत देती हैं। न सिर्फ ग्राम पंचायतों में बल्कि नगर परिषद, नगर पालिका और नगर निगमों में भी में भी यही हाल है। इंदौर नगर निगम में हाल ही में महापौर ने वार्डों की समीक्षा का जो अभियान चलाया, उनमें महिला पार्षद अप्रासंगिक नजर आईं! इंदौर नगर निगम की कोई भी बैठक या आयोजन हो, महिला पार्षद कभी-कभी दिखती हैं, उनके पति ही ज्यादा दिखाई देते हैं। निगम के हर कार्यालय में पार्षद पतियों की ही दादागिरी नजर आती है। ये सिर्फ भाजपा की महिला पार्षदों की बात नहीं, कांग्रेस में भी हाल है। गिनती की महिला पार्षद ही होंगी, जो पतियों के बिना भी सक्रिय हैं। अधिकांश महिला पार्षद ऐसी हैं, जिनके पतियों ने उन्हें कठपुतली बनाकर उनके नाम पर नेतागिरी चमकाई! निगम के किसी अधिकारी की उन्हें रोकने-टोकने की हिम्मत इसलिए नहीं होती कि महिला पार्षदों को कोई आपत्ति ही नहीं है।
  ये नकली पार्षद अपनी असली पार्षद पत्नियों को उन मतदाताओं से कभी मिलने भी नहीं देते, जिन्हें वोट देकर चुना गया है। ऐसे में महिला सशक्तिकरण की बात करने वाली सरकार की भावना का क्या होगा? महिलाओं के लिए आरक्षण की मूल भावना ही ये थी कि इससे महिलाओं में नेतृत्व करने और निर्णय लेने की क्षमता का विकास होगा, पर 'पतियों' की राजनीतिक इच्छा ने उसपर पानी फेर दिया! ऐसा करके पार्षद पति अपनी पत्नियों का तो नुकसान कर ही रहे हैं, महिलाओं को पिछड़ा और अभिशप्त बनाए रखने में भी मददगार हैं। इंदौर के संदर्भ में ये मामला इसलिए भी गंभीर है कि यहाँ महापौर महिला है, पर उन्हें कभी इस बात का अहसास नहीं होता कि उनकी ही बिरादरी के साथ नाइंसाफी हो रहा है।
  जब से सरकार ने महिलाओं के लिए स्वायत्तशासी संस्थाओं में सीटों का आरक्षण किया, कई पुरुषों को उनके लिए रास्ता छोड़ना पड़ा! जो पुरुष खुलकर राजनीति करना चाहते थे, उन्हें इस व्यवस्था के कारण पीछे हटना पड़ा! लेकिन, उन्होंने इस व्यवस्था के भीतर से भी उन्होंने राजनीति का आसान रास्ता खोज लिया। आरक्षित सीटों पर पत्नियों को चुनाव लड़वाया और खुद राजनीति करने लगे। इससे चुनी हुई महिलाएं फिर घरेलू बन गई और पति उनके नाम से राजनीति करने लगे। बात यहीं तक सीमित होती तो किसी को आपत्ति नहीं होती, पर ये पार्षद पति अपनी राजनीतिक सीमा और मर्यादा दोनों लांगने लगे हैं। पार्षद पत्नी के नाम से अधिकारियों को धमकाने लगे और शासकीय राशि में गड़बड़ी करने लगे! अब तो ये सब खुलेआम होने लगा! जब कोई घटना होती है, तो पार्षद पति गुंडागर्दी करने लगते हैं, दबाव बनाने लगते हैं या धमकाने लगते हैं। लेकिन, किसी जिम्मेदार अधिकारी के माथे पर शिकन तक नजर नहीं आती!
  ऐसी स्थिति में जनता खुद को ठगा सा महसूस करती है। आखिर, इस सबके पीछे जनता का क्या दोष? महिला पार्षद काम करना नहीं चाहती होगी, ऐसा नहीं है! लेकिन, पति के सम्मान और सामाजिक मर्यादा के कारण वो विरोध नहीं कर पाती! पत्नी की नेतागिरी की आड़ में ये पार्षद पति अपनी कई ऐसी राजनीतिक इच्छाओं की पूर्ति कर लेते हैं, जो वे चाहते हैं! ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या महिला पार्षद सिर्फ नाम की जनप्रतिनिधि हैं? जब महिला सांसदों और विधायकों के कामकाज में उनके पतियों का कभी सीधे दखल नहीं देखा गया, तो फिर महिलाओं की सरपंची और पार्षदी पर पति क्यों हावी हो रहे हैं? जब किसी महिला को मतदाता अपना प्रतिनिधि चुनती है, तो उसके जहन में पति के अतिक्रमण की कल्पना नहीं होती!
   महिला सरपंचों और पार्षदों का व्यवस्था में दखल स्थानीय मामला नहीं है! वास्तव में ये एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है! लेकिन, कोई भी राजनीतिक पार्टी इस मामले में गंभीर नहीं है। पंचायत राज दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी पंचायती सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा था कि पंचायती राज व्यवस्था के तहत सरपंच के पति का दखल समाप्‍त होना चाहिए! बिलासपुर हाईकोर्ट में लगी एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए भी कोर्ट कहा कि पंचायती राज शासन व्यवस्था में सरपंच पतियों की दखलंदाजी और उनके द्वारा किए जा रहे शक्ति दुरुपयोग बंद होने चाहिए! राज्य सरकारों को नियम बनाने चाहिए! लेकिन, लगता है राज्य सरकार ही इस बारे में गंभीर नहीं है!
  खानापूर्ति के लिए राज्य सरकार ने प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायतों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के पतियों पर बैठकों में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया! शासन के इस फैसले के बाद अब महिला जनप्रतिनिधियों की बैठक में इनके पति उपस्थित नहीं होते! आदेश में कहा गया है कि पंचायतों में महिला प्रतिनिधियों की ग्राम सभाओं की बैठकों में महिला सरपंचों तथा पंचों की सक्रिय भागीदारी जरुरी है! पंचायतों की कार्यवाहियों में सरपंच पति के शामिल होने पर प्रतिबंध लगाया गया है। लेकिन, यह व्यवस्था नगर पालिकाओं और नगर निगमों में लागू क्यों नहीं की गई? यदि कोई पार्षद पति अधिकारियों को धमकाता है, पार्षद पत्नी के अधिकारों का खुद उपयोग करता है या निर्माण कार्यों में हिस्सेदारी करता है, तो महिला पार्षद को हटाने की भी कार्रवाई की जाना चाहिए! क्या सरकार ने इस दिशा में कभी सोचा है? सवाल उठता है कि नहीं सोचा तो अब सोचे!
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