इंदौर को मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिलने की अंतर्कथा
समर्थकों की उत्साहित फौज ने राजधानी की तरफ कूच कर लिया था! खुशियां मनाने के लिए मिठाइयां बनकर तैयार थी! स्वागत कैसा होगा, रैली कहाँ से निकलेगी ये भी तय था! लेकिन, शाम 5 बजे सारे अरमानों पर पानी फिर गया! राजभवन में जो विधायक मंत्रियों की शपथ लेने खड़े हुए, उनमें इंदौर से कोई नहीं था! न तो भंडारा भाई, न चुनरी भैया, न सबके 'बाबा!' तीनों नहीं, ऐसा कैसे हुआ? किसकी चली और किसकी नहीं? अब ये सवाल ख़बरों की शक्ल बन गया! जबकि, सभी जानते हैं कि ये 'ताई' और 'भाई' की वर्चस्व की जंग का नतीजा है! निष्कर्ष ये निकला कि 'भाई' की जिस ताकत को नजरअंदाज किया जा रहा था, वो उन्होंने फिर दिखा दी! रमेश मेंदोला नहीं तो कोई नहीं!
प्रदेश में जब तीसरी बार भाजपा की सरकार बनी तो इंदौर से शपथ लेने वाले एक ही विधायक थे कैलाश विजयवर्गीय यानी 'भाई'! लेकिन, पार्टी के केंद्रीय संगठन में जगह दिए जाने पर उन्होंने मंत्री पद छोड़ दिया! उसके बाद से ही कयास लगाए जा रहे थे कि उनकी जगह क्षेत्र क्रमांक 2 के विधायक रमेश मेंदोला को दी जा सकती है! क्योंकि, वो उनके सबसे करीब हैं! लेकिन, जब मंत्रिमंडल में नए मंत्रियों को शामिल करने की बात चली संभावितों में मेंदोला का नाम कहीं नहीं था! लोकायुक्त के एक मामले को इसका आधार माना गया! इसके बाद तीन नाम हवा में थे सुदर्शन गुप्ता, महेंद्र हार्डिया और उषा ठाकुर! इंदौर में भाजपा की दूसरी बड़ी ताकत और लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन 'ताई' ने सुदर्शन के लिए पूरा जोर लगा दिया था! यहाँ तक कि मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री नरेंद्र तोमर भी पक्ष में थे! जब किसी एक विधायक के लिए इतने दिग्गज लगे हों, तो शपथ में कोई शंका भी नहीं बचती! महेंद्र हार्डिया उर्फ़ 'बाबा' के पास दिग्गजों की ऐसी कोई ताकत तो नहीं थी, पर तीन बार की जीत और पिछले मंत्रिमंडल के अनुभव से उनका दावा भी मजबूत लग रहा था! उषा ठाकुर को ये भरोसा था कि यदि रमेश मेंदोला का नंबर कटा तो 'भाई' के खाते से उनको मंत्री बनने से कोई नहीं रोक सकता!
उधर, 'ताई' सुदर्शन का चक्र घुमाने की कोशिश करने के साथ ही, उषा के पर काटने में भी लगी थी! ऐसे में 'बाबा' की उम्मीदें बढ़ गई! लेकिन, इस सारी कवायद में रमेश मेंदोला का नाम कहीं नजर नहीं आ रहा था! एक तरह से उन्हें संभावित मंत्रियों की रेस से बाहर ही मान लिया गया था! किन्तु, किसी को इस बात का अंदाजा था कि जिसे रेस से बाहर माना जा रहा था, फैसला करने वाला 'वजीर' उन्हीं के पास था! अंदर की ख़बरें बताती कि कैलाश विजयवर्गीय ने सुदर्शन गुप्ता को छोड़कर महेंद्र हार्डिया या उषा ठाकुर को रमेश मेंदोला के साथ शपथ दिलाने का भी विकल्प रखा था! लेकिन, पार्टी नेतृत्व नहीं माना! जब रमेश मेंदोला के लिए के लिए रास्ता साफ़ नहीं हुआ, तो 'भाई' के पास वीटो पावर इस्तेमाल करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था! वही उन्होंने किया भी और एक ही फार्मूला दिया 'रमेश नहीं तो कोई नहीं!'
अभी तक देखा गया है कि जिस विधायक को शपथ के लिए बुलाया जाता है, वो शपथ लेकर बत्ती वाली गाड़ी में ही लौटता है! लेकिन, सुदर्शन गुप्ता के साथ ऐसा नहीं हुआ! उनकी किस्मत ने दगा दे दिया! भोपाल से फोन भी आया और वे उत्साहित समर्थकों के साथ भोपाल रवाना भी हुए, पर लौटे तो खाली हाथ! सुदर्शन का रास्ता कैलाश विजयवर्गीय ने काटा ये सब जानते हैं! क्योंकि, इंदौर के 'एक' और 'दो' नंबर की लड़ाई जगजाहिर है। पिछले विधानसभा चुनाव और चुनरी यात्रा में मनोज परमार गोली कांड के बाद से ही दोनों नेता एक दूसरे के विरोधी है। पार्टी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने सुदर्शन का चक्र नहीं चलने दिया! 'ताई' की कोशिशें कामयाब नहीं हुई! इसे विजयवर्गीय खेमे की बड़ी जीत मानी जा रही हैं! यदि ये 'भाई' की जीत है तो निश्चित ही 'ताई' की बड़ी हार भी है।
शपथ की तैयारी में चोट लगने वालों में इंदौर और उज्जैन संभाग से कुछ और नाम भी हैं! दोनों संभागों की कुल 66 विधानसभाओं में से 58 भाजपा के पास होना भी पार्टी नेतृत्व के लिए परेशानी का कारण है। झाबुआ-आलीराजपुर से किसी को मौका मिलने के आसार थे! मुख्यमंत्री की राखी बहन निर्मला भूरिया तो शपथ के लिए तैयार थी, पर निराश हुई! धार से रंजना बघेल, नीना वर्मा या भंवरसिंह शेखावत आस लगाए बैठे थे! जबकि, रंजना बघेल और नीना वर्मा के खिलाफ हाई कोर्ट में चुनाव याचिकाएं लंबित हैं, माना जा रहा है कि दोनों के ही चुनाव शून्य भी हो सकते हैं! फिर भी दोनों कोशिशों में लगे रहे! नीना वर्मा पहली बार की विधायक हैं, उनका पहला चुनाव शून्य हो गया था! लेकिन, फिर भी विक्रम वर्मा ने अपना दम लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी! अपनी नाराजी भी जाहिर की, लेकिन न तो कुछ होना था, न हुआ! यही स्थिति खरगोन की भी रही! 13 साल से ये जिला मंत्री विहीन है। अबकी बार तीन बार के विधायक हितेंद्र सोलंकी या बालकृष्ण पाटीदार में से किसी को शपथ मिलने का भरोसा था, लेकिन हुआ कुछ नहीं! लेकिन, इंदौर के दर्द के आगे मालवा के सभी दर्द फीके हैं! वर्चस्व की लड़ाई में इंदौर के कई नेताओं को निराशा हुई, पर हारकर भी भाजपा के 'भाई' ने इंदौर में रणनीतिक जीत का झंडा जरूर गाड़ दिया! जो लोग कैलाश विजयवर्गीय को हाशिये पर समझ रहे थे, उनके मुगालते भी इस घटना से शायद दूर हो गए होंगे!
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