Friday, July 8, 2016

'ताई' और 'भाई' की चक्की में पिसी भाजपा की राजनीति

  मध्यप्रदेश मंत्रिमंडल के पुनर्गठन में इंदौर के साथ जो हुआ, उसने इस शहर के राजनीतिक जख्म को एक बार फिर कुरेद दिया! पहले जो 'कुर्ता खींच' राजनीति कांग्रेस के शासनकाल में होती रही है, वही सब अब भाजपा में भी होने लगा! इसी टांग खिंचाई राजनीति का हश्र है कि प्रदेश की आर्थिक राजधानी का बिल्ला लटकाए ये शहर मंत्रिमंडल में नेतृत्व विहीन है! कैलाश विजयवर्गीय 'भाई' और सुमित्रा महाजन 'ताई' के बीच वर्चस्व की लड़ाई नतीजा उन नेताओं को भुगतना पड़ रहा है, जो इन दोनों के पीछे खड़े हैं! फिर भी एक सवाल सबके दिलों में कौंध रहा है कि आखिर मुख्यमंत्री की ऐसी क्या मज़बूरी थी, जो वे इन दोनों नेताओं के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सके! इस बार के पुनर्गठन में मुख्यमंत्री ने कई क्षत्रपों की अनदेखी की, तो फिर इंदौर के किसी विधायक को वे अपनी मर्जी से शपथ क्यों नहीं दिला पाए?
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हेमंत पाल 
   बड़े शहरों की राजनीति भी बड़ी होती है! बड़े शहर पर कोई एक नेता राज नहीं करता! नेताओं के इलाके बंटे होते हैं, इसी के मुताबिक उनके समर्थकों का भी बंटवारा होता है! कुछ नेता अपने इलाके तक सीमित होते हैं, तो कुछ में दूसरे के प्रभाव क्षेत्र में भी दखल देने का साहस होता है! इंदौर में भाजपा के दो सत्ता केंद्र हैं सांसद सुमित्रा महाजन 'ताई' और भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय 'भाई'। दोनों नेताओं के बीच हमेशा खुली राजनीतिक जंग चलती रहती है। सांसद होने से नाते 'ताई' की राजनीति दिल्ली से चलती रही और 'भाई' की भोपाल से! लेकिन, महासचिव बनने के बाद उनका भी दिल्ली में दखल बढ़ गया! 
   इंदौर लोकसभा सीट से सुमित्रा महाजन 'ताई' 1989 से लगातार चुनाव जीतती आ रही है! पार्टी में उनके वर्चस्व को किसी ने चुनौती भी नहीं दी! क्योंकि, उनके कामकाज का तरीका आक्रामक नहीं रहा कि किसी का रास्ता कटे! लेकिन, उन्होंने अपनी 'चौकड़ी' में किसी को घुसने भी नहीं दिया! वे चंद गैर-राजनीतिक लोगों से घिरी रहती हैं! वे ही उनके राजनीतिक सलाहकार की भूमिका निभाते हैं और वे ही उनके लिए बयानबाजी भी करते रहते हैं! 'ताई' ने अपने लम्बे राजनीतिक जीवन में ऐसी कोई उपलब्धि भी इंदौर के लिए नहीं जुटाई कि लोग उसके नाम से याद उन्हें याद करें! लेकिन, कुछ मामलों में दखल देकर काम बिगाड़ने का काम जरूर किया! उनकी सारी सक्रियता रेलवे को लेकर चिट्ठी-पत्री करने तक ही दिखाई देती रही है। सक्रियता से बचकर रहना 'ताई' की आदत रही है! लोग उनकी इस राजनीतिक शैली से कभी खुश नहीं रहे, पर मज़बूरी है कि सामने कोई विकल्प भी नहीं रहा! प्रकाशचंद्र सेठी के बाद कांग्रेस के पास इंदौर में कोई ऐसा नेता नहीं रहा, जो शहर की राजनीति कमांड कर सके! महेश जोशी ने कोशिश जरूर की, पर वे भी गुटबाजी से बाहर नहीं निकल सके!
  सुमित्रा महाजन के चिर प्रतिद्वंदी माने जाने वाले कैलाश विजयवर्गीय 'भाई' ने इंदौर में भाजपा का प्रभाव क्षेत्र बढ़ाया, ये उनके विरोधी भी स्वीकारते हैं! विधानसभा का क्षेत्र क्रमांक-2 पहले कम्युनिस्ट पार्टी और बाद में कॉंग्रेस का गढ़ था! उसमें सेंध 'भाई' ने ही लगाई! लेकिन, अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश में वे उनसे एक बड़ी भूल ये जरूर हुई कि कई असामाजिक तत्वों को राजनीति की आड़ में पनपने का मौका मिल गया! मिल मजदूरों वाले इस इलाके में बेरोजगारी के कारण 'भाई' को कार्यकर्ताओं की कमी तो नहीं रही, पर गैर-राजनीतिक तत्वों से उनकी राजनीतिक इमेज जरूर प्रभावित हुई! इसका खामियाजा रमेश मेंदोला को भी भुगतना पड़ा है! लेकिन, कैलाश विजयवर्गीय ने एक ऐसे नेता की छवि जरूर बनाई जो आसानी से सबके लिए उपलब्ध है! लोगों के सुख-दुःख में खड़े होने वाले इस नेता के आसपास हमेशा लोगों हुजूम बना रहता है! जहाँ एक तरफ 'ताई' बड़े लोगों की नेता बनती गईं, वहीँ 'भाई' आम आदमी के नेता बनकर बढ़ते गए! जैसे-जैसे दोनों का कद बढ़ता गया, दूरियां भी बढ़ती रही!
  अब स्थिति ये है कि इंदौर में 'ताई' और 'भाई' के बीच खुली तलवारें खिंच गई! प्रदेश के मंत्रिमंडल में किसका समर्थक शामिल होगा, इस मुद्दे ने शहर की भाजपा राजनीति को दो ध्रुवों में बाँट दिया! पार्टी की हर इकाई के सदस्यों के चयन में दोनों क्षत्रप अपनी ताकत दिखाने की कोशिश करते हैं! यही कारण रहा कि आईडीए के चैयरमेन और संचालकों की नियुक्ति लम्बे समय तक टलती रही! पार्टी के शहर अध्यक्ष के मुद्दे पर भी जमकर तनातनी हुई! लम्बे समय से ऐसा कोई मामला सामने नहीं आया, जब दोनों क्षत्रपों में सहमति बनी हो! कभी राजनीतिक समरसता का पर्याय कही जाने वाली पार्टी आज राजनीति का अखाडा बनकर रह गई है! प्यारेलाल खण्डेलवाल, नारायण धर्म और राजेंद्र धारकर जैसे नेताओं ने अपनी मेहनत से इंदौर में भाजपा की जड़ों को सींचा था, आज वो जड़ें सूख गईं! अभी तक 'ताई' और 'भाई' के बीच सारी लड़ाई छुपकर होती रही है, अब सबकुछ सामने आ गया! 
  'ताई' ने इतने सालों के अपने राजनीतिक जीवन में कभी किसी नेता को पनपने नहीं दिया! बल्कि, कुछ आगे बढ़ते नेताओं को रोकने की कोशिश जरूर की! उनके होते हुए सिर्फ कैलाश विजयवर्गीय 'भाई' ही अकेले ऐसे नेता जिन्होंने भाजपा में अपनी अलग राह बनाई! पहले महापौर और बाद में लगातार मंत्री बनते रहे! यही कारण रहा कि जिस भाजपा नेता की पटरी 'ताई' से नहीं बैठी उसने 'भाई' का हाथ थाम लिया! इसके बाद इंदौर में भाजपा की राजनीति दो ध्रुवों पर केंद्रित हो गई! कई बार अपने समर्थकों के लिए दोनों के बीच विवाद भी हुए, पर कभी दोनों आमने-सामने आए हों, ऐसा नहीं हुआ! इस बार मंत्रिमंडल का पुनर्गठन पहला मौका था, जब दोनों के बीच इतनी ज्यादा रस्साकशी हुई हो! 'ताई' जिस विधायक सुदर्शन गुप्ता को मंत्री बनाने के लिए अडी थी, उसे 'भाई' ने नहीं बनने दिया! मुद्दा रमेश मेंदोला को मंत्री बनाने का था, पर वो कहीं पीछे ही रह गया! दोनों नेताओं की जिद के पीछे अपनी अलग-अलग वजह रही! 'ताई' उषा ठाकुर के विरोध में थी और सुदर्शन गुप्ता के पक्ष में! जबकि, 'भाई' का कहना था कि सुदर्शन को छोड़कर किसी को भी मंत्री बना दिया जाए!   
   
'ताई' और उषा ठाकुर के बीच हमेशा राजनीतिक विरोध रहा है। यह गांठ विधानसभा चुनाव में टिकट बंटवारे से और मजबूत हो गई। 'ताई' चाहती थी कि राऊ विधानसभा से उनके बेटे मंदार महाजन को टिकट मिले! वहीं कैलाश विजयवर्गीय विधानसभा क्षेत्र क्रमांक तीन से चुनाव लडऩा चाहते थे। इसके चलते दोनों नेताओं के बीच में समझौता भी हो गया! लेकिन, उषा ठाकुर ने समीकरण बिगाड़ दिए। एक तरफ मंदार का टिकट कटा, दूसरी तरफ मजबूरी में 'भाई' को महू से चुनाव लड़ना पड़ा। ये भी देखा गया है कि जब भी मौका मिला 'ताई' ने उषा ठाकुर को नीचा दिखाया! एक बार 'पर्यावरण बचाओ' के संदेश को लेकर ठाकुर ने सायकल रैली निकाली थी। उसी दिन 'ताई' एमवाय अस्पताल के दौरे पर थी! उषा ठाकुर अपना कारवां लेकर वहां पहुंच गईं और सायकल चलाने का न्यौता दिया! इस पर 'ताई' का जवाब था 'मुझे नौटंकी नहीं आती है।' ये सुनकर कार्यकर्ता भी स्तब्ध रह गए। 
  ऐसे कई प्रसंग हैं जब 'ताई' ने इंदौर के नेताओं के अलावा आम लोगों को भी तवज्जो नहीं दी! हाल ही में सुमित्रा महाजन स्कूली बच्चों के अभिभावकाें को बेतुकी नसीहत देकर भी आलोचना का शिकार हुई! निजी स्कूलों की फीस बढ़ोत्तरी से परेशान अभिभावकों जब उनसे मिलने आए तो उन्होंने कहा कि अगर वे निजी स्‍कूलों की फीस नहीं भर पा रहे हैं तो अपने बच्‍चों का एडमिशन सरकारी स्‍कूल में करवा दें! अभिभावकों की मदद करने या उन्हें सांत्वना देने के बजाए उन्‍हें बच्‍चों का एडमिशन सरकारी स्‍कूल में कराने की नसीहत से लोग हतप्रभ रह गए! जब सुमित्रा महाजन से कहा गया कि निजी स्कूलों की बीमारी दूर करने की जरूरत है, तो जवाब में उन्‍होंने कहा कि आप इसे बीमारी मत कहो! आपको बीमारी लगती है तो बच्चों को निजी स्कूलों में मत पढ़ाओ, सरकारी में पढ़ाओ। जब जनता के संवेदनशील कहे जाने वाले प्रतिनिधि ऐसे होंगे तो निश्चित ही लोगों को उन नेताओं की शरण में जाना होगा, जिनकी धमक से उनके काम आसानी ही हो जाएँ! 
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