मध्यप्रदेश में तीन स्थानीय निकाय चुनाव में कांग्रेस को मिली जीत से ज्यादा चर्चा भाजपा की हार और उसके पीछे छुपे कारणों की है! इस छोटे चुनाव के नतीजों में छुपे बड़े संदेश और संकेत को पार्टी को समझना होगा! इन तीन चुनावों के नतीजों को पार्टी होने वाले शहडोल लोकसभा और नेपानगर विधानसभा के उपचुनाव के नजरिए से भी देख रही है। राजनीतिक नजरिए से प्रदेश में भाजपा के लिए तीनों निकाय चुनाव में हार खतरे की घंटी जैसा है। छह महीने पहले भी निकाय चुनावों में भाजपा ने मुंह की खाई थी। झाबुआ-रतलाम लोकसभा उपचुनाव में हार के बाद भाजपा कि ये बड़ी हार है। इसलिए कि मुख्यमंत्री समेत कई बड़े नेता प्रचार में लगे रहे! अब इसे भाजपा गलत उम्मीदवारों का चयन कहे, तो ये हजम करने वाला बहाना नहीं है! कांग्रेस ने राज्यसभा चुनाव की एक सीट जिस कूटनीति से हांसिल की थी, उसके बाद इन तीन निकाय पर जीत का सिलसिला बरकरार होना पार्टी को उत्साह की खुराक मिलने जैसी बात है!
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- हेमंत पाल
मध्यप्रदेश में तीन स्थानीय निकायों के चुनाव के नतीजे राजनीतिक तौर पर ज्यादा अहमियत न रखते हों, मगर इन नतीजों ने भाजपा को मुसीबत में जरूर डाल दिया! तीनों निकाय चुनाव में कांग्रेस ने जीत दर्ज की! 12 साल से प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए यह हार इसलिए भी बड़ी मानी जा रही है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान समेत कई मंत्री चुनाव में सक्रिय थे! तीनों जगह जीत के मुगालते में भी थे! लेकिन, सतना जिले की मैहर, रायसेन की मंडीदीप और अशोकनगर की ईसागढ़ के निकाय चुनाव में भाजपा को करारी हार झेलनी पड़ी! कांग्रेस के मुकाबले भाजपा के पार्षद भी कम जीते! संभवतः ये पहली बार हुआ कि किसी चुनाव में भाजपा के हाथ बिल्कुल खाली रहे हों! जबकि, झाबुआ लोकसभा उपचुनाव के बाद इन चुनावों में जीत मिलने से कांग्रेस उत्साह बल्लियां लांघ रहा है! ये स्वाभाविक भी है! प्रदेश की जनता ने जिस पार्टी को तीन विधानसभा चुनाव में हाशिए पर रख दिया हो, उसके लिए इस तरह की छोटी-छोटी जीत ही संभलने के लिए काफी होती हैं!
बड़े चुनाव से जनता का नजरिया उतनी अच्छी तरह समझ में नहीं आता! छोटे चुनाव ही जनता की नब्ज का सही संकेत देती हैं! भाजपा ने इस हार को दिखावे के लिए हल्के में लिया हो, पर वास्तव में इन नतीजों की गंभीरता से पार्टी वाकिफ है। इसलिए कि तीनों निकाय प्रदेश के तीन इलाकों का मूड बताते हैं! मैहर से विंध्य-बुंदेलखंड, ईसागढ़ से ग्वालियर-चंबल और मंडीदीप से भोपाल-मध्यभारत के मिजाज का पता चलता है। प्रदेश के राजनीतिक भविष्य को भांपने के लिए भी ये चुनाव नतीजे बहुत कुछ कहते हैं! ये बात इसलिए कि भाजपा ने इन चुनावों में कांग्रेस के सामने प्रचार में मुख्यमंत्री, प्रदेश अध्यक्ष, संगठन महामंत्री, प्रदेश के पार्टी पदाधिकारियों अलावा कई मंत्री भी लगे थे। किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि नतीजे इतना उलट जाएंगे! भाजपा इसे अपनी हार इस संदर्भ में मान रही है कि उम्मीदवारों का चयन ठीक नहीं हुआ! जबकि, कांग्रेस का निष्कर्ष है कि ये भाजपा सरकार की असफलता पर जनता का फैसला है!
भाजपा इन चुनाव को छोटा बताकर हार की अनदेखी नहीं कर सकती! चुनाव छोटे जरूर थे, मगर इससे संकेत मिलता है कि प्रदेश में भाजपा की जमीनी हकीकत बदल रही है। पार्टी की पकड़ में अब वो कसावट नहीं रही, जिसके दावे किए जाते हैं। इन नतीजों से अगले विधानसभा चुनाव को भांपना तो अभी जल्दबाजी होगी! मगर ये सरकार में बैठे नुमाइंदों को झकझोरने के लिए काफी है कि अब संभलने का वक़्त है! घोषणाओं से लोगों को ज्यादा दिन तक भरमाया नहीं जा सकता! लोग अब जमीन पर उन घोषणाओं की हकीकत देखना चाहते हैं! दरअसल, ये चुनाव भाजपा की पकड़ का ढीला पड़ने का इशारा तो हैं ही, सरकार को सजग होने की भी सलाह है। इन चुनाव से कांग्रेस का उत्साह भी दोगुना हुआ है।
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव ने भी माना कि यह चुनाव छोटे जरूर थे, मगर इस जीत से पार्टी को नई ऊर्जा मिली है। इन नतीजों ने शिवराज सरकार को बता दिया कि लोग प्रतिक्रिया नहीं देते, इसका मतलब ये नहीं निकाला जाए कि वे सरकार के काम से खुश हैं! प्रदेश में लोग सूखे के बाद अतिवर्षा से परेशान हैं! किसानों को समय पर बीज और खाद नहीं मिल रहा, किसान आत्महत्या कर रहे हैं! लेकिन, सरकार के पास कोई ठोस योजना नहीं! घोषणाएं सुन-सुनकर जनता का धैर्य जवाब देने लगा है! ऐसे में जब भी जहाँ भी जनता को अपना 'मत' देने का अवसर मिलता है, वो सरकार तक अपनी बात पहुंचाने का मौका नहीं छोड़ते! इन तीनों निकाय चुनाव को लेकर भाजपा बेहद गंभीर थी! क्योंकि, तीनों पर पहले भाजपा ही काबिज थी! प्रचार में मुख्यमंत्री समेत कई मंत्री और पार्टी पदाधिकारी लगे थे! किसी ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी! जबकि, मुकाबले में सामने कड़ी कांग्रेस के किसी भी बड़े नेता ने इन चुनाव में प्रचार नहीं किया! स्थानीय कार्यकर्ताओं पर ही सारा दारोमदार था, फिर भी कांग्रेस को जीत हांसिल हुई! कांग्रेस के नजरिए से इन निकाय चुनाव में बड़े कांग्रेसी नेताओं का प्रचार के लिए नहीं आना भी कूटनीतिक फैसला रहा! इससे स्थानीय स्तर पर गुटबाजी नहीं पनपी और भाजपा को घेरने मौका भी कांग्रेस को मिला! जब भी कांग्रेस के बड़े नेता छोटे चुनाव में सक्रिय हुए हैं, अधिकांश में कांग्रेस को हार का मुँह देखना पड़ा! बड़े नेताओं के आने से स्थानीय कार्यकर्ता बंट जाते हैं, जिससे उम्मीदवार को नुकसान होता है। इन चुनाव में मिली जीत से कांग्रेस को अरसे बाद खुश होने और नए सिरे से सँभलने का भी मौका मिला!
एक साथ तीनों चुनावों में पर मिली हार से भाजपा के सभी बड़े नेता हतप्रभ है! प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान का कहना है कि शायद उम्मीदवारों के चयन में उनकी पार्टी से कोई गलती हुई है। इसके साथ ही उनका कहना है कि निकाय चुनाव स्थानीय स्तर पर होते हैं, इसमें उम्मीदवार और स्थानीय मुद्दों का महत्व होता है। इस तरह कि सफाई देना पार्टी अध्यक्ष की मज़बूरी भी है। क्योंकि, कोई भी बड़ा नेता अपनी पार्टी की हार को आसानी से पचा नहीं पाता, उसके पीछे कई कारण खोज लेता है, वही भाजपा अध्यक्ष ने भी किया! लेकिन, राजधानी के नजदीक मंडीदीप हारना भाजपा की पकड़ ढीली पड़ने का साफ़ इशारा है। अब भाजपा में इस करारी हार पर मंथन शुरू हो गया है। संघ ने भी इस मामले को गंभीरता से लिया और पार्टी से जवाब माँगा है! शहडोल लोकसभा और नेपानगर विधानसभा के उपचुनाव जल्द होने की संभावना है। दोनों सीटों पर भाजपा का कब्ज़ा था और यहाँ से जीते नेताओं का पिछले दिनों निधन हो गया था! इन निकाय चुनाव की हार का असर होने वाले इन चुनावों पर न पड़े, इसलिए पार्टी डैमेज कंट्रोल में लग गई है!
भाजपा अपनी इस हार को छोटा चुनाव, स्थानीय मुद्दे और उम्मीदवार के चयन में गलती बताकर ध्यान भटकाने की कोशिश जरूर कर रही है! पर, पार्टी को पता है कि इन नतीजों ने पार्टी को गंभीर सोच में डाल दिया है। अब शायद पार्टी उन सारे मुद्दों पर फिर से विचार करेगी, जो इस हार के लिए कहीं न कहीं कारण रहे होंगे! फिर चाहे वो दलित आरक्षण का मामला हो, मंत्रिमंडल के पुनर्गठन से उपजी नाराजी का, घोषणा के मुताबिक वादे पूरे न कर पाने का या फिर सरकारी स्तर पर बढ़ते भ्रष्टाचार का! यदि पार्टी ने लोगों के मिजाज को भांपकर अपने आपको नहीं संभाला तो शहडोल और नेपानगर में झाबुआ दोहराने में देर नहीं लगेगी! उससे भी बड़ा मामला भाजपा कार्यकर्ताओं में बढ़ती नाराजी और उपेक्षा का है। खुलकर ये बात शायद कोई न करे, पर इस सच को नकारा नहीं जा सकता कि पार्टी के जमीनी कार्यकर्ता बड़े नेताओं की उपेक्षा से नाखुश हैं! चुनाव के ये नतीजे उसी का संकेत हैं!
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